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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ १७३ हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी एक ही भङ्ग होता है। २७ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास नाम को मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक ही भङ्ग होता है। अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पूर्वोक्त २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक भङ्ग होता है। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग हुए। अनन्तर भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास सहित २८ प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर के मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका एक भङ्ग है । अथवा प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के सुस्वर के स्थान पर उद्योत नाम को मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक भङ्ग है । इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग होते हैं। भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के स्वरसहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक भङ्ग होता है। इस प्रकार आहारक संयतों के २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पाँच उदयस्थान होते हैं और इन पांच उदयस्थानों के क्रमश: १-१-१+२+२+१=७ भंग होते हैं। १ गो० कर्मकांड की गाथा २६७ से ज्ञात होता है कि पांचवें गुणस्थान तक के जीवों के ही उद्योत प्रकृति का उदय होता है-- "देसे तदियकसाया तिरियाउज्जोवणीचतिरियगदी।" तथा गाथा २८६ से यह भी ज्ञात होता है कि उद्योत प्रकृति का उदय तिर्यंचगति में ही होता है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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