________________
१५६
सप्ततिका प्रकरण
चउ पणवीसा सोलस नव बाणउईसया य अडयाला । एयालुत्तर छायालसया एक्केक्क बंधविही ॥२५॥
शब्दार्थ--घउ---चार, पणवीसा-पच्चीस, सोलस--सोलह, नव-नौ, बाणउईसया-बानवैसी, य-और, अडयाला---अड़तालीस, एयालुत्तर छायालसया-छियालीस सौ एकतालीस, एक्केक-- एक-एक, बंधविही-बंध के प्रकार, भंग।
गाथार्थ-तेईस प्रकृतिक आदि बंधस्थानों में क्रम में चार, पच्चीस, सोलह, नौ, बानवैसौ अड़तालीस, छियालीस सौ इकतालीस, एक और एक भंग होते हैं। विशेषार्थ--पूर्व गाथा में नामकर्म के बंधस्थानों का विवेचन करके प्रत्येक के भंगों का उल्लेख किया है । परन्तु उनसे प्रत्येक बंधस्थान के समुच्चय रूप से भंगों का बोध नहीं होता है। अतः प्रत्येक बंधस्थान के समुच्चय रूप से भंगों का बोध इस गाथा द्वारा कराया जा
____ नामकर्म के पूर्व गाथा में २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक, ये आठ बंधस्थान बतलाये गये हैं और इस गाथा में सामान्य से प्रत्येक बंधस्थान के भंगों की अलग-अलग संख्या बतला दी गई है कि किस बंधस्थान में कितने भंग होते हैं। किन्तु यह स्पष्ट नहीं होता है कि वे किस प्रकार होते हैं। अत: उन भंगों के होने का विचार पूर्व में बताये गये बंधस्थानों के क्रम से करते हैं।
पहला बंधस्थान तेईस प्रकृतिक है। इस स्थान में चार भंग होते हैं। क्योंकि यह स्थान अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों के बांधने वाले जीव के ही होता है, अन्यत्र तेईस प्रकृतिक बंधस्थान नहीं पाया जाता है। इसके चार भंग पहले बता आये हैं। अत: तेईस प्रकृतिक
बंधस्थान में वे ही चार भंग जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org