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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ १५१ विशेषता है, उसी प्रकार यहां भी वही विशेषता समझना चाहिये । यहाँ भी सामान्य से ४६०८ भंग होते हैं ---- 'गुणतोसे तीसे वि य भंगा अवाहिया छयालसया । पंचिदियतिरिजोगे पणवीसे बंधि भंगिक्को । अर्थात्---पंचेन्द्रिय तिर्यच के योग्य उनतीस और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में ४६०८ और ४६०८ और पच्चीस प्रकतिक बंधस्थान में एक भंग होता है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच के योग्य तीनों वन्धस्थानों के कुल भंग ४६०८+४६०८ -।-१ -- ६२१७ होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यं च के उाक ६२१७ भंगों में एकेन्द्रिय के योग्य बंधस्थानों के ४०, द्वीन्द्रिा के योग्य बन्ध थानों के १७, बीन्द्रिय के योग्य बंधस्थानों के १७ और चतुरिन्द्रिय के योग्य बंधस्थानों के १७ भंग मिलाने पर तिर्यचति सम्बन्धी बंधस्थानों के कुल भंग ९२१७-१-४० +१७+ १७+१७-१३०८ होते हैं। इस प्रकार से लियंचगति योग्य बंधस्थानों और उनके भंगों को बतलाने के बाद अब मनुष्यगति के बंधस्थानों और उनके भंगों का कथन करते हैं। मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों को वाँधने वाले जीवों के २५, २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थान होते हैं। पच्चीस प्रकृतिक बंध स्थान वही है जो अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य बंध करने वाले जीवों को बतलाया है। किन्तु इतनी विशेषता समझना .. १ (क) मनुष्यगति प्रायोग्यं बनतस्त्रीणि बंधस्थानानि, तद्यथा-पंचविंशतिः एकोनत्रिशत् त्रिंशत् । -सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १७८ (ख) मणुसगदिणामाए तिणि द्वाणाणि तीसाए एगुणतीसाए पणुवीसाए ट्ठाणं चेदि । --जी० चू टा०, सूत्र ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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