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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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प्रकार किसी ने एक बार सूक्ष्म के साथ साधारण का बंध किया और दूसरी बार सूक्ष्म के साथ प्रत्येक का बंध किया तो इस प्रकार तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में चार भंग हो जाते हैं।
पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ वास, स्थावर, बादर और सूक्ष्म में से कोई एक, पर्याप्त, प्रत्येक और साधारण में से कोई एक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक, शुभ और अशुभ में से कोई एक, यशःकीर्ति और अयश:कीर्ति में से कोई एक, दुभंग, अनादेय और निर्माण, इन पच्चीस प्रकृतियों का बंध होता है। इन पच्चीस प्रकृतियों के समुदाय को एक पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान कहते हैं। यह बंधस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, मनुष्य और देव के होता है।
इस बंधस्थान में बीस भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैं-जब कोई जीव बादर, पर्याप्त और प्रत्येक का बंध करता है, तब उसके स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशकीति और अयशःकीति में से किसी एक का बंध होने के कारण आठ भंग होते हैं तथा जब कोई जीव बादर, पर्याप्त और साधारण का बंध करता है, तब उसके यश:कीति का बंध न होकर अयश:कीति का ही बंध होता है--
नो सुहुमतिगेण जसं अर्थात् सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त इन तीन में से किसी एक का भी बंध होते समय यश:कीर्ति का बंध नहीं होता है। जिससे यहाँ यशःकीति और अयश:कीर्ति के निमित्त से बनने
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