________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
१२६
दृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों के क्रमशः पूर्वोक्त तीन और पांच सत्तास्थान होते हैं। नौ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए भी इसी प्रकार जानना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि अविरतों के नौ प्रकृतिक उदयस्थान वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान पाये जाते हैं, अत: यहाँ भी उक्त चार सत्तास्थान होते हैं।
सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान सम्बन्धी उक्त कथन का सारांश यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि के १७ प्रकृतिक एक बंधस्थान और ७, ८, ९ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान तथा २८, २७ और २४ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि में उपशम सम्यग्दृष्टि के १५ प्रकृतिक एक बंधस्थान और ६, ७, ८ प्रकृतिक तीन उदयस्थान तथ २८ और २४ प्रकृतिक दो सत्तास्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि वे एक १७ प्रकृतिक बंधस्थान तथा ६, ७ और ८ प्रकृतिक, ये तीन उदय स्थान तथा २१ प्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है। वेदक सम्यग्दृष्णि के १७ प्रकृतिक एक बंधस्थान तथा ७, ८ और ६ प्रकृतिक तीन उदय स्थान तथा २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं संवेध भंगों का पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, अत: यहां किस कितने बंधादि स्थान होते हैं, इसका निर्देश मात्र किया है।
तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान के रहते पाँच-पाँच सत्तास्था होते हैं-'तेर नवबंधगेसु पंचेव ठाणाई' । वे पाँच सत्तास्थान २८, २' २३, २२ और २१ प्रकृतिक होते हैं। पहले तेरह प्रकृतिक बंधस्थान सत्तास्थानों को स्पष्ट करते हैं।
तेरह प्रकृतियों का बंध देशविरतों को होता है और देशविर दो प्रकार के होते हैं-तिर्यंच और मनुष्य ।' तिर्यंच देशविरतों : १ तत्र त्रयोदशबन्धका देशविरता: ते च द्विधा-तिर्यचो मनुष्याश्च ।
__-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only