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षष्ठ कर्मग्रन्थ
१२५ प्रकृतिक ही होता है-इगवीसे अट्ठवीस । इसका कारण यह है कि इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान सासादन सम्यग्दृष्टि को ही होता है और सासादन सम्यक्त्व उपशम सम्यक्त्व से च्युत हुए जीव को होता है, किन्तु ऐसे जीव के दर्शनमोहनीय के तीनों भेदों की सत्ता अवश्य पाई जाती है, क्योंकि यह जीव सम्यक्त्व गुण के निमित्त से मिथ्यात्व के तीन भाग कर देता है, जिन्हें क्रमश: मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व कहते हैं । अत: इसके दर्शन मोहनीय के उक्त तीनों भेदों की सत्ता नियम से पाई जाती है। यहाँ उदयस्थान सात, आठ और नौ प्रकृतिक, ये तीन होते हैं । अतः इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान के समय तीन उदयस्थानों के रहते हुए एक अट्ठाईस प्रकृतिक ही सत्तास्थान होता है। ___ सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान के समय छह सत्तास्थान होते हैं-'सत्तरसे छच्चेव' जो २८, २७, २६, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक होते हैं। सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि, इन दो गुणस्थानों में होता है ।
इनमें से सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों के ७, ८ और ६ प्रकृतिक यह तीन उदयस्थान होते हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों के चार उदयस्थान होते हैं-६, ७, ८ और ६ प्रकृतिक ।२ इनमें से छह प्रकृतिक १ एकविंशति बन्धो हि सासादनसम्यग्दृष्टेर्भवति, सासादनत्वं चजीवस्यौपशमिक
सम्यक्त्वात् प्रच्यवमानस्योपजायते, सम्यक्त्वगुणेन च मिथ्यात्वं विधाकृतम्, तद्यया-सम्यक्त्वं मिथं मिथ्यात्वं च, ततो दर्शनत्रिकस्यापि सत्कर्मतया प्राप्यमाणत्वाद् एकविंशतिबंधे त्रिष्वप्युदयस्थानेष्वष्टाविंशतिरेक सत्तास्थानं भवति ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७१ २ सप्तदशबन्धो हि द्वयानां भवति, तद्यथा-सम्यग्मिथ्यादृष्टिनामविरत
सम्यग्दृष्टीनां च । तत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां त्रीण्युदयस्थानानि, तद्यथासप्त अष्टौ नव । अविरतसम्यग्दृष्टिनां चत्वारि, तद्यथा-षट् सप्त अष्टो नव।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७१
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