SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ सप्ततिका प्रकरण भंगों का कथन करने के अनन्तर अब आगे सत्तास्थानों के साथ बन्धस्थानों का कथन करते हैं । तिन्न ेव य बावीसे इगवीसे अट्ठवीस सत्तरसे । छ च्चेव तेरनवबंध गेसु पंचेव ठाणाई ॥२१॥ पंचविहचउविहेसुं छ छक्क सेसेसु जाण पंचेव । चत्तारि य बंधवोच्छेए ॥ २२ ॥ पत्तेयं पत्तेयं शब्दार्थ --- तिन व तीन सत्तास्थान, य-और, बावीसेबाईस प्रकृतिक बन्धस्थान में, इगवीसे इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान में, अट्ठबीस - अट्ठाईस का सत्तास्थान, सत्तर से - सत्रह के बन्धस्थान में, छच्चेव - छह का, तेरनबबंधगेसु तेरह और नो प्रकृतिक बन्धस्थान में, पंचेन पाँच ही, ठाणाणि सत्तास्थान | -- P पंचविह- पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान में, चउविहेसुं - चार प्रकृतिक बन्धस्थान में, छ छक्क छह-छह, सेसेसु -- बाकी के बन्धस्थानों में, जाण -- जानो, पंचेव-पाँच ही, पत्तेयं - पत्तेयं --- प्रत्येक में, ( एक-एक में ), चतारि-चार व और बंधवोच्छेए-बन्ध का विच्छेद होने पर भी । गाथार्थ - बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान में तीन, इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान में अट्ठाईस प्रकृति वाला एक, सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान में छह, तेरह प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक बन्धस्थान में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं । पाँच प्रकृतिक और चार प्रकृतिक बन्धस्थानों में छह-छह सत्तास्थान तथा शेष रहे बंधस्थानों में से प्रत्येक के पांचपांच सत्तास्थान जानना चाहिये और बन्ध का विच्छेद हो जाने पर चार सत्तास्थान होते हैं । विशेषार्थ- पहले १५, १६ और १७वीं गाथा में मोहनीय कर्म के बन्धस्थानों और उदयस्थानों के परस्पर संवेध का कथन कर आये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy