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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ ७५ इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान में मोहनीय कर्म की सब प्रकृतियों का ग्रहण किया गया हैं। यह स्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक पाया जाता है । इस स्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव जब उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता प्राप्त कर लेता है और अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर वेदक सम्यक्त्व पूर्वक अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके चौबीस प्रकृति की सत्ता वाला हो जाता है, तब अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है तथा उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार समझना चाहिये कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाला हुआ, अनन्तर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करके प्रथम छियासठ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण किया और फिर अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यमिथ्यात्व में रहकर फिर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करके दूसरी बार छियासठ सागर सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण किया । अन्त में मिथ्यात्व को प्राप्त करके सम्यक्त्व प्रकृति के सबसे उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के द्वारा सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्ता वाला हुआ। इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्टकाल पल्य के असंख्यातवें भाग से अधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है। ऐसा जीव यद्यपि मिथ्यात्व में न जाकर क्षपक श्रेणि पर भी चढ़ता है और अन्य सत्तास्थानों को प्राप्त करता है। परन्तु इससे उक्त उत्कृष्ट काल प्राप्त नहीं होता है, अत: यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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