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________________ सप्ततिका प्रकरण गुणस्थानों की अपेक्षा गोत्रकर्म के भङ्ग मिथ्या दृष्टि और सासादन गुणस्थान में क्रम से पाँच और चार होते हैं । मिश्र आदि तीन गुणस्थानों में दो-दो भङ्ग हैं । प्रमत्त आदि आठ गुणस्थानों में गोत्रकर्म का एक-एक भङ्ग है और अयोगिकेवली गुणस्थान में दो भङ्ग होते हैं । ६४ इस प्रकार से वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के भंगों को बतलाने के पश्चात अब पूर्व सूचनानुसार - मोहं परं वोच्छं - मोहनीय कर्म के स्थानों आदि का कथन करते हैं । मोहनीय कर्म बावीस एक्कबीसा, सत्तरसा तेरसेव नव पंच । च तिग दुगं च एवकं बंधद्वाणाणि मोहस्स ॥ १० ॥ २ शब्दार्थ - बावीस-बाईस, एक्कवीसा – इक्कीस, सत्तरसासत्रह, तेरसेब - तेरह, नव नौ, पंच-पांच, चउ - चार, तिग --- १ (क) बंधइ ऊइण्णयं चि य इयरं वा दो वि संत चऊ भंगा । नीएसु तिसु वि पढमो अबंधगे दोण्णि उच्चदए ॥ - पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० १६ दोण्णि अट्ठट्ठाणेसु । होंति णियमेण ॥ -गो० कर्मकांड, गा० ६३८ (ख) मिच्छादि गोदभंगा पण चदु तिसु एकेक्का जोगिजिणे दो भंगा २ तुलना कीजिये - (क) बावीसमेक्कबीसं सत्तारस तेरसेव णव पंच । चदुतियदुगं च एक्कं बंधट्ठाणाणि मोहस्स || (ख) दुगइगवीसा सत्तर तेरस नव पंच चउर ति दु एगो । बंधी इगि दुग चउत्थय पण उणवमेसु मोहस्स || Jain Education International - गो० कर्मकांड ४६३ - पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० १६ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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