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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४६ करके शुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों में जाता है तव अथवा अशुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों से नीचे के गुणस्थानों में आता है तब उसके आहारक सप्तक की सत्ता बनी रहती है। लेकिन जो अप्रमत्त संयमी मुनि आहारक सप्तक का बंध किये बिना ही ऊपर के गुणस्थानों में जाता है अथवा नीचे के गुणस्थानों में आता है, उसके उन गुणस्थानों में आहारक सप्तक की सत्ता नहीं पायी जाती है । इसी विभिन्नता के कारण आहारक सप्तक की सत्ता सभी गुणस्थानों में विकल्प से मानी गई है। आहारक सप्तक के समान ही तीर्थकर नामकर्म भी प्रशस्त प्रकृति है । क्योंकि उसका बंध सम्यक्त्व के सद्भाव में होता है और वह भी चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक किसी-किसी विशुद्ध सम्यग्दृष्टि को होता है। लेकिन गुणस्थानों में इसकी सत्ता के सम्बन्ध में गाथा में संकेत किया है कि 'वितिगुणे विणा तित्थं'-दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानों में सत्ता विकल्प से होती है। इसका कारण यह है कि किसी जीव के चौथे से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक में तीर्थकर प्रकृति का बंध होने पर जब वह शुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों में जाता है तो उनमें तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता पाई जाती है। लेकिन वह जीव जिसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है, अशुद्ध परिणामों के कारण ऊपर से नीचे के गुणस्थानों में भी आता है तो मिथ्यात्व गुणस्थान में भी आता है, लेकिन दूसरे और तीसरे गुणस्थान में नहीं हो आता है, इसीलिये दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष बारह गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता रह सकती है। किन्तु कोई जीव विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर भी तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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