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शतक
कर देने पर शेष ६५ प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं। जिनका संकेत इस गाथा में किया गया है । इन पंचानवें प्रकृतियों को अध्रुवोदया मानने का सामान्य कारण तो यह है कि बहुत सी प्रकृतियां परस्पर विरोधी हैं और तोयंकर आदि कितनीक प्रकृतियों का सदैव उदय होता नहीं है तथा जिस गुणस्थान तक जितनी प्रकृतियों का गुणप्रत्यय से विच्छेद नहीं बतलाया है, वहां तक उन प्रकृतियों के रहने पर भी उसी गुणस्थान में वह प्रकृति द्रव्य आदि की अपेक्षा उदय में आये भी और न भी आये, इसीलिये उनको अध्रुवोदय, प्रकृतियों में माना है । इनका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है।
पूर्व में अध्रुवबन्धिनी तिहत्तर प्रकृतियों के नाम बतलाये जा चुके हैं। उनमें से स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ इन चार प्रकृतियों के सिवाय शेष ६६ प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं। इन उनहत्तर प्रकृतियों में से तीर्थंकर, उच्छ्वास, उद्योत, आतप और पराघात इन पांच प्रकृतियों का उदय किसी जीव को होता है और किसी जीव को नहीं होता है तथा शेष ६४ प्रकृतियां जैसे बन्धावस्था में विरोधिनी हैं, वैसे ही उदय दशा में विरोधनी हैं । इसीलिये इनको अध्रुवोदया कहा है।
मोहनीय कर्म की ध्रुवबंधिनी उन्नीस प्रकृतियों में से मिथ्यात्व को छोड़कर शेष सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा ये अठारह ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं। क्योंकि ये उदय में परस्पर विरोधी हैं । क्रोध का उदय होने पर मान आदि अन्य कषायों का उदय नहीं होता है, इसी प्रकार मान आदि के उदय के समय क्रोध आदि के बारे में भी जानना चाहिये । इसलिये बंध की अपेक्षा विरोधिनी नहीं होने पर भी उदय की अपेक्षा क्रोधादि कषायें विरोधिनी हैं। इसी विरोधरूपता के कारण कषायों को अध्रुवोदया कहा है। भय और जुगुप्सा का उदय भी कादाचित्क है। किसी के किसी समय इनका उदय होता है और
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