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शतक
जब तक जीव सकर्मा है, संसार में परिभ्रमण कर रहा है तब तक वह ध्रुव बन्ध, अध्रुव बंध आदि अवस्था वाले कर्मों से सहित है । अपने मन, वचन, काय प्रवृत्ति एवं काषायिक परिणामों से उनका स्वामी कहलाता है यानी कर्मग्रहण करने का अधिकारी बना रहता है।
लेकिन जब कर्मों को निःशेष करने लिये सन्नद्ध होता है तब वह कर्म मल की सत्ता के उद्रक को शमित करने या कर्मों की सत्ता को निःशेषतया क्षय करने रूप दोनों उपायों में से किसी एक को अपनाता है। कर्मों का उपशम करना उपशम श्रेणि और क्षय करना क्षपक श्रेणि कहलाती है । इन दोनों श्रेणियों का संकेत गाथा में 'य' शब्द से किया है। उपशम या क्षपक श्रेणि पर आरोहण किये बिना जीव अपने आत्मस्वरूप का अवलोकन नहीं कर पाता है। यह बात दूसरी है कि उपशम श्रोणि में अवस्थित जीव सत्तागत कर्मों के उद्वेलित होने पर आत्मदर्शन के मार्ग से भ्रष्ट होकर अपनी पूर्व दशा को प्राप्त हो जाता है किन्तु क्षपक श्रोणि वाला सभी प्रकार की विघ्नबाधाओं का क्षय करके आत्मोपलब्धि द्वारा अनन्त संसार से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार से गाथा में कर्ममुक्त आत्मा, कर्ममुक्ति के उपाय—मार्ग और संसारी जीव के होने वाली कर्मों की बंध, उदय आदि अवस्थाओं का संकेत किया गया है कि जब तक जीव संसार में है तब तक कर्म प्रकृतियों की अनेक अवस्थाओं से संयुक्त रहेगा। इन कर्मों से मुक्ति के लिये जीव के उपशम या क्षय रूप आत्मपरिणाम ही कारण हैं और कर्ममुक्ति के बाद आत्मा परमात्मा पद प्राप्त कर लेती है। इसीलिये ' इन अवस्थाओं का संकेत करने के लिये गाथा में ग्रन्थ के वर्ण्य विषय निम्न प्रकार हैं
(१) ध्रुवबंधिनी, (२) अध्रुवबन्धिनी, (३) ध्रुवोदया, (४) अध्रु
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