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________________ ४५४ परिशिष्ट-३ है कि १३ प्रकृतियां क्षय होती हैं और किन्हीं का मत है कि १२ प्रकृतियां क्षय होती हैं। १३ प्रकृतियों का क्षय मानने वाले अपने मत को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि तद्भवमोक्षगामी के अंतिम समय में आनुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियों की सत्ता उत्कृष्ट रूप से रहती है और जघन्य से तीर्थंकर प्रकृति के सिवाय शेष बारह प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इसका कारण यह है कि मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली भवविपाकी मनुष्यायु क्षेत्रविपाकी मनुष्यानुपूर्वी, जीवविपाकी शेष नौ प्रकृतियां तथा साता या असाता में से कोई एक वेदनीय, उच्च गोत्र, ये तेरह प्रकृतियाँ तद्भवमोक्षगामी जीव के अंतिम समय में क्षय को प्राप्त होती हैं, द्विचरम समय में नष्ट नहीं होती हैं। अतः तद्भव मोक्षगामी के अंतिम समय में उत्कृष्ट तेरह प्रकृतियों की और जघन्य बारह प्रकृतियों की सत्ता रहती है। __ लेकिन चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में बारह प्रकृतियों का क्षय मानने वालों का कहना है कि मनुष्यानुपूर्वी का क्षय द्विचरम समय में ही हो जाता है, क्योंकि उसके उदय का अभाव है। जिन प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें स्तिबुकसंक्रम न होने से अंत समय में अपने-अपने स्वरूप से उनके दलिक पाये जाते है जिससे उनका चरम समय में सत्ताविच्छेद होना युक्त है। किन्तु चारों ही आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी होने के कारण दूसरे भव के लिये गति करते समय ही उदय में आती हैं अतः भव में जीव को उनका उदय नहीं हो सकता है और उदय न हो सकने से अयोगि अवस्था के द्विचरम समय में ही मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता का क्षय हो जाता है ।। इस प्रकार के मतान्तर में अधिकतर अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में ७२ और अंत समय में १३ प्रकृतियों के क्षय को प्रमुख माना है। पंचम कर्मग्रन्थ की टीका में ७२+१३ का ही विधान किया है और गो० कर्मकाँड गा० ३४१ में भी ऐसा ही लिखा है - 'उदयगवार गराणू तेरस चरिमम्हि वोच्छिण्णा' अर्थात् उदयगत १२ प्रकृतियाँ और एक मनुष्यानुपूर्वी, इस प्रकार तेरह प्रकृतियाँ अयोगी केवली के अंत के समय में अपनी सत्ता से छूटती हैं। संक्षेप में क्षपक श्रेणि का यह विधान समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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