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परिशिष्ट-३
क्षपकणि के विधान का स्पष्टीकरण
क्षपकश्रेणि में क्षय होने वाली प्रकृतियों के नाम कर्मग्रन्थ के अनुरूप आवश्यक नियुक्ति गा० १२१-१२३ में बतलाये हैं । गो० कर्मकांड में क्षपकश्रेणि का विधान इस प्रकार है
णिरयतिरिक्खसुराउगसते ण हि देससयलवदखवगा । अयदचउक्कं तु अणं अणियट्टीकरणचरिमम्हि ॥ ३३५ जुगवं संजोगित्ता पुणोवि अणियट्टिकरणबहुभागं ।
वोलिय कमसो मिच्छं मिस्सं सम्म खवेदि कमे ॥ ३३६ अर्थात्-नरक, तिर्यंच और देवायु के सत्व होने पर क्रम से देशवत, महाव्रत और क्षपक श्रेणि नहीं होती, यानी नरकायु का सत्व रहते देशव्रत नही होते, तिर्यंचायु के सत्व में महाव्रत नहीं होते और देवायु के सत्व में क्षपकश्रेणि नहीं होती हैं । अतः क्षपक श्रोणि के आरोहक मनुष्य के नरकायु, तिर्यचायु और देवायु का सत्त्व नहीं होता है तथा असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत अथवा अप्रमत्त संयत मनुष्य पहले की तरह अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करण करता है। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का एक साथ विसंयोजन करता है, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायों और नौ नोकषाय रूप परिणमाता है और उसके बाद एक अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके दर्शनमोह का क्षपण करने के लिये पुनः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है । अनिवृत्तिकरण के काल में से जब एक भाग काल बाकी रह जाता है और बहुभाग बीत जाता है, तब क्रमशः मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षपण करता है और इस प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है।
इसके बाद चारित्रमोह का क्षपण करने के लिये क्षपक श्रेणि पर आरोहण करता है। सबसे पहले सातवें गुणस्थान में अधःकरण करता है और उसके बाद आठवें गुणस्थान में पहुँच कर पहले की ही तरह स्थितिखंडन, अनुभागखंडन आदि कार्य करता है। उसके बाद नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पहुँच कर--
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