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________________ ४४२ परिशिष्ट-३ लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और मर गया । वही जीव उसी अवगाहना को लेकर वहां दुबारा उत्पन्न हुआ और मर गया । इस प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उतनी बार उसी अवगाहना को लेकर वहां उत्पन्न हुआ और मर गया । उसके बाद एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को अपना जन्मक्षेत्र बना लेता है तो उतने काल को एक क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । काल-परिवर्तन - एक जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी करके मर गया । वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी हो जाने में बाद मर गया । वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और उसी तरह मर गया । इस प्रकार वह उत्सर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ और इसी प्रकार अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ । उत्पत्ति की तरह मृत्यु का भी क्रम पूरा किया । अर्थात् पहली उत्सर्पिणी के पहले समय में मरा, दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में मरा, इसी प्रकार पहली अवसर्पिणी के पहले समय में मरा, दूसरी अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा। इस प्रकार जितने समय में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों को अपने जन्म और मृत्यु से स्पृष्ट कर लेता है, उतने समय का नाम कालपरिवर्तन है । भवपरिवर्तन नरकगति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है । कोई जीव उतनी आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ । मरने के बाद नरक से निकलकर पुनः उमी आयु को लेकर दुबारा नरक में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं, उतनी बार उसी आयु को लेकर नरक में उत्पन्न हुआ । उसके बाद एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरकगति की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण की। उसके बाद तिर्यंचगति को लिया । तियंचगति में अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ और मर गया । उसके वाद उसी आयु को लेकर पुनः तिर्यंचगति में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार अन्तमुहूर्त में जितने समय होते हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ । इसके बाद पूर्वोक्त प्रकार से एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तिर्यंचगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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