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________________ ३६० रहती है । उसके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण खण्ड कर-करके खपाता है । जब उसके अंतिम स्थितिखण्ड को खपाता है तब उस क्षपक को कृतकरण, कहते हैं । इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है । ૧ यदि क्षपक श्र ेणि का प्रारंभ बद्धायु जीव करता है और अनंतानुबंधी के क्षय के पश्चात् उसका मरण हो तो उस अवस्था में मिथ्यात्व का उदय होने पर वह जीव पुनः अनंतानुबंधी का बंध करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनंतानुबंधी नियम से बंधती है, किन्तु १ लब्धिसार ( दिगम्बर ग्रन्थ) में दर्शन मोहनीय की क्षपणा के बारे में लिखा है 수 ॥ ११०॥ दंसणमोहक्खवणापट्टवगो कम्मभूमिजो मणुसो । तित्थय रपादमूले केवलसुदवली णिट्ठत्रगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । किदकर णिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ॥ १११ ॥ कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थंकर, केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोह के क्षपण का प्रारम्भ करता है । अधःकरण के प्रथम समय से लेकर जब तक मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय का द्रव्य सम्यक्त्व प्रकृति रूप संक्रमण करता है तब तक के अन्तर्मुहूर्तं काल को दर्शन मोह के क्षपण का प्रारम्भिक काल कहा जाता है और उस प्रारम्भ काल के अनन्तर समय से लेकर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के पहले समय तक का काल निष्ठापक कहलाता है । निष्ठापक तो जहां प्रारम्भ किया था वहां ही अथवा वैमानिक देवों में अथवा भोगभूमि में अथवा धर्मा नाम के प्रथम नरक में होता है । क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि मरण करके चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है । बद्धाउ पडिवम्नो पढमकसायक्खए जइ मरेज्जा । तो मिष्टत्तोदयओ विणिज्ज भुज्जो न खीणम्मि || Jain Education International शतक - विशेषावश्यक भाष्य १३२३ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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