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श्रेणि का प्रारम्भ मानते हैं वे चौथे आदि गुणस्थानवर्ती जीवों को उपशमणि का प्रारम्भक मानते हैं। क्योंकि उपशम सम्यक्त्व चौथे आदि चार गुणस्थानों में ही प्राप्त किया जाता है। लेकिन जो आचार्य चारित्रमोहनीय के उपशम से यानी उपशम चारित्र की प्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्नों से उपशम श्र ेणि का प्रारम्भ मानते हैं, वे सप्तमगुणस्थानवर्ती जीव को ही उपशम श्र ेणि का प्रारम्भक मानते हैं, क्योंकि सातवें गुणस्थान में ही यथाप्रवृत्तकरण होता है ।"
उपशम श्र ेणि के आरोहण का क्रम अगले पृष्ठ ३८७ पर देखिये । इस प्रकार से उपशम श्रेणि का स्वरूप जानना चाहिये । अनन्तर अब क्रमप्राप्त क्षपक श्र ेणि का वर्णन करते हैं ।
क्षपक श्रेणि
अणमिच्छामोसम्मं तिआउ इर्गावगलथीणतिगुज्जोवं । तिरिनयरथावरदुगं साहारायव अडनपुत्थीए ॥६॥ नाणी ।
छगपु संजलणादोनिद्दविग्धवरणक्लए
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शब्दार्थ - अण - अनंतानुबंधी कषाय, मिच्छ —मिथ्यात्व मोहनीय, मीस — मिश्र मोहनीय, सम्मं - सम्यक्त्व मोहनीय, तिनाउ - तीन आयु, इगविगल – एकेन्द्रिय, विकेलेन्द्रिय, थोणतिगस्त्यार्नाद्धित्रिक, उज्जीवं उद्योत नाम, तिरिनरयथावरदुगं - तिर्यंचद्विक, नरकद्विक, स्थावरद्विक, साहारायव -- साधारण नाम, आतप नाम, अड – आठ कषाय, नपुत्थीए - नपुंसक वेद और स्त्रीवेद |
छग - हास्यादि षट्क, पुं- पुरुष वेद, संजलणा – संज्वलन कषाय, दोनिद्द — दो निद्रा ( निद्रा और प्रचला), विग्धवरणक्खए
शतक
१ दिगम्बर संप्रदाय में दूसरे मत को ही स्वीकार किया है ।
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