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शतक
प्रमाण प्रथम स्थिति का काल रहता है । प्रथम विभाग में पूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को लेकर अपूर्वस्पर्धक करता है अर्थात् पहले के स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर उन्हें अत्यन्त रसहीन कर देता है। द्वितीय विभाग में पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों से दलिकों को लेकर अनन्त कृष्टि करता है अर्थात् उनमें अनन्तगुणा हीन रस करके उन्हें अंतराल से स्थापित कर देता है। कृष्टिकरण के काल के अन्त समय में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम करता है । उसी समय में संज्वलन लोभ के बंध का विच्छेद होता है। इसके साथ ही नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का अंत हो जाता है।
इसके बाद दसवां सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान होता है । इस गुणस्थान का काल अन्तमुहूर्त है। उसमें आने पर ऊपर की स्थिति से कुछ कृष्टियों को लेकर सूक्ष्मसंपराय के काल के बराबर प्रथम स्थिति को करता है और एक समय कम दो आवलिका में बंधे हुए शेष दलिकों का उपशम करता है। सूक्ष्मसंसराय के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का उपशम हो जाता है। उसी समय में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की चार, अंतराय की पांच, यशःकीर्ति और उच्च गोत्र, इन प्रकृतियों के बन्ध का विच्छेद होता है। अनन्तर समय में ग्यारहवां गुणस्थान उपशान्तकषाय हो जाता है और इस गुणस्थान में मोहनीय की २८ प्रकृतियों का उपशम रहता है।' १ लब्धिसार (दिगम्बर साहित्य) गा० २०५-३६१ में उक्त वर्णन से मिलता
जुलता उपशम का विधान किया गया है। किन्तु उसमें अनन्तानुबधी के उपशम का विधान न करके विसंयोजन को माना है
उसमचरियाहिमुहा वेदगसम्मो अणं वियोजित्ता ।। २०५ अर्थात् उपशम चारित्र के अभिमुख वेदक सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबंधी क विसंयोजन करके............।
उक्त कथन से स्पष्ट है कि ग्रंथकार विसयोजन का ही पक्षपाती है ।
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