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________________ शतक लोक के अधः, मध्य और ऊर्ध्व यह तीन विभाग हैं और इन विभागों के होने का मध्यबिंदु मेरु पर्वत ये मूल में है । इस मध्य लोक के बीचोबीच मेरु पर्वत है, जिसका पाया जमीन में एक हजार योजन और ऊपर जमीन पर ६६००० योजन है । जमीन के समतल भाग पर इसकी लम्बाई-चौड़ाई चारों दिशाओं में दस हजार योजन की है । मेरु पर्वत के पाये के एक हजार में से नौ सौ योजन के नीचे जाने पर अधोलोक प्रारम्भ होता है और अधोलोक के ऊपर १८०० योजन तक मध्यलोक है । अर्थात् नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजने ऊपर कुल मिलाकर १८०० योजन मध्यलोक की सीमा है और मध्यलोक के बाद ऊपर का सभी क्षेत्र ऊर्ध्वलोक कहलाता है । इन तीनों लोकों में अधोलोक और ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई, चौड़ाई से ज्यादा और मध्यलोक में ऊंचाई की अपेक्षा लम्बाईचौड़ाई अधिक है, क्योंकि मध्यलोक की ऊंचाई तो सिर्फ १८०० योजन प्रमाण है और लम्बाई-चौड़ाई एक राजू प्रमाण । १ अधोलोक और ऊर्ध्वलोक की लंबाईचौड़ाई भी एक सी नहीं है । अधोलोक की लंबाई-चौड़ाई सातवें नरक में सात राजू से कुछ कम है और पहला नरक एक राजू लंबा-चौड़ा है जो मध्यलोक की लंबाईचौड़ाई के बराबर है । ऊर्ध्वलोक की लंबाई-चौड़ाई पांचवें देवलोक में पांच राज् और उसके बाद एक-एक प्रदेश की कमी करने पर लोक के चरम ऊपरी भाग पर एक राजु लंबाई-चौड़ाई रहती है | यानी ऊर्ध्वलोक का अन्तिम भाग मध्यलोक के बराबर लंबा-चौड़ा है। लोक के आकार की जानकारी संलग्न चित्र में दी गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ३६६ प. १ ७ पूर्व www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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