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शतक
कथन तो प्रकृतियों के नाम और उनके योग्य पात्र को बतलाते हुए कर दिया है। इनके अतिरिक्त शेष रही ६६ प्रकृतियों के लिये गाथा में बताया है कि --सेसा उक्कोसपएसगा मिच्छो-शेष रही प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्या दृष्टि जीव करता है । जिसका विवरण इस प्रकार है
मनुष्य द्विक, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकद्विक, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिरद्विक, शुभद्विक, अयश-कीर्ति और निर्माण इन पच्चीस प्रकृतियों के सिवाय शेष ४१ प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि को बंधती ही नहीं हैं। उनमें से कुछ प्रकृतियां सासादन गुणस्थान में बंधती हैं किन्तु वहां उत्कृष्ट योग नहीं होता है, अतः ४१ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्यादृष्टि ही करता है।
उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से औदारिक, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, बादर, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति, निर्माण, इन पन्द्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नामकर्म के तेईस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक जीवों के होता है और शेष दस प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नामकर्म के पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक जीवों को ही होता है, अन्य को नहीं और तेईस व पच्चीस का बंध मिथ्यादृष्टि को ही होता है । इसीलिये शेष पच्चीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योग वाले मिथ्या दृष्टि जीव ही करते हैं ।
इस प्रकार से समस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का निर्देश करने के बाद अब आगे की गाथा में जघन्य प्रदेशवन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं।
सुमुणी दुन्नि असन्नी निरयतिगसुराउसुरविउविदुगं। सम्मो जिणं जहन्नं सुहमनिगोयाइखणि सेसा ॥३॥
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