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शतक
प्रदेशबंध अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनि और शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। विशेषार्थ-बंधयोग्य एकसौ बीस प्रकृतियों में से पच्चीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का कथन पूर्व गाथा में किया जा चुका है। उनके सिवाय शेष बची हुई ६५ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों को इन दो गाथाओं में बतलाया है। ___ इन ६५ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व को पांच खंडों में विभाजित किया है। पहले खंड में पांच, दूसरे में तेरह, तीसरे में नौ, चौथे में दो और पांचवें में उक्त प्रकृतियों के अलावा शेष रही ६६ प्रकृतियों को ग्रहण किया है।
पहले खंड में पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, इन पाँच प्रकृतियों का समावेश करते हुए कहा है-पण अनियट्टी-यानि अनिवृत्तिबादर नामक नौवें गुणस्थानवी जीव पुरुषवेद और संज्वलन चतुष्क, इन पांच प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करते हैं । क्योंकि पुरुषवेद नोकषाय मोहनीय का भेद है और नौवें गुणस्थान में छह नोकषायों का बंध न होने के कारण उनका भाग पुरुषवेद को मिल जाता है तथा पुरुषवेद के बंध का विच्छेद होने के बाद संज्वलन कषाय चतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । क्योंकि मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों व नोकषायों का सब द्रव्य संज्वलन कषाय चतुष्क को मिलता है।
दूसरे खंड में गभित तेरह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-शुभ विहायोगति, मनुष्यायु, देवत्रिक (देवगति, देवानुपूर्वी और देवायु), सुभगत्रिक (सुभग, सुस्वर और आदेय), वैक्रियद्विक (वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग), समचतुरस्र संस्थान, असातावेदनीय, वज्रऋषभनाराच
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