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छह मूल कर्म प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का कथन करते हुए इसी के साथ उनकी सत्रह उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध भी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में बतलाया है - छण्हं सतरस सुहुमो । उक्त सत्रह प्रकृतियां इस प्रकार हैं- मतिज्ञानावरण आदि पांच ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और दानान्तराय आदि पांच अंतराय कर्म के भेद |
मोहनीय और आयु के सिवाय शेष छह मूल कर्म तथा उनकी मतिज्ञानावरण आदि सतह उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध बसवे गुणस्थान में मानने का कारण यह है कि मोहनीय और आयुकर्म का बंध न होने के कारण उनका भाग ज्ञानावरण आदि शेष छह् कर्मों को मिल जाता है।
शतक
द्वितीय कषाय अप्रत्याख्यानावरण कपाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में और तीसरी कषाय प्रत्याख्यानावरण का उत्कृष्ट प्रदेशबंध पांचवें देशविरति गुणस्थान में होता हैअजया देसा वितिकसाए । इसका कारण यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी का बंध नहीं होने से उनका भाग अप्रत्याख्यानावरण कपाय को मिल जाता है तथा देशविरति गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कपाय का भी बंध नहीं होने से उसका भाग प्रत्याख्यानावरण कपाय को मिलता है । इसीलिये चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशवंध तथा पांचवें देशविरति गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कपाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध माना है ।
इस प्रकार से मूल कर्म प्रकृतियों और कुछ उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का निर्देश करने के बाद आगे की गाथाओं में अन्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का कथन करते हैं ।
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