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शतक
जब जीव मरण कर-करके पुद्गल के एक-एक परमाणु के द्वारा समस्त परमाणुओं को भोग लेता है तो वह द्रव्यपुद्गल परावर्त और आकाश के एक-एक प्रदेश में मरण करके समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को स्पर्श कर चुकता है तब वह क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहलाता है । इसी प्रकार काल और भाव पुद्गल परावर्तों के बारे में जानना चाहिये । यह तो स्पष्ट है कि जब जीव अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है तब अभी तक एक भी ऐसा परमाणु नहीं बचा है कि जिसका उसने भोग न किया हो, आकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं बचा जहाँ वह न मरा हो और उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल का एक भी समय शेष नहीं रहा जिसमें वह मरा न हो और ऐसा एक भी कषायस्थान बाकी नहीं रहा, जिसमें वह न मरा हो । उसने उन सभी परमाणु, प्रदेश, समय और कषायस्थानों का अनेक बार अपने मरण के द्वारा भोग कर लिया है। इसी को दृष्टि में रखकर द्रव्यपुद्गल परावर्त आदि नामों से काल का विभाग कर दिया है और जो पुद्गल परावर्त जितने काल में होता है, उतने काल के प्रमाण को उस पुद्गल परावर्त के नाम से कहा जाता है।
इसीलिए ग्रन्थकार ने पुद्गल परावर्त के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार भेदों का यहां वर्णन किया है।
पुद्गल परावर्त के काल का ज्ञान कराने के लिये गाथा में संकेत किया है कि वह अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल के
स्वैकार्थसमवायिप्रवृत्तिनिमित्तमनन्तोत्सपिण्यवसपिणीमानस्वरूपं लक्ष्यते । तेन क्षेत्रपुद्गलपरावर्तादौ पुद्गलपरावर्तनाभावेऽपि प्रवृत्तिनिमित्त. स्यानन्तोत्सपिण्यवसर्पिणीमानस्वरूपस्य विद्यमानत्वात् पुद्गलपरावर्तशब्दः प्रवर्तमानो न विरुद्ध यते । प्रवचन० टी० पृ० ३०८ उ०
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