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पंचम कर्मग्रन्थ
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है कि-उत्सेधांगुल' के द्वारा निष्पन्न एक योजन प्रमाण लंबा, एक योजन प्रमाण चौड़ा और एक योजन प्रमाण गहरा एक गोल पल्यगढ़ा बनाना चाहिए, जिसकी परिधि कुछ कम ३१ योजन होती है। एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालानों से उस पल्य को इतना ठसाठस भर देना चाहिये कि न आग उन्हें जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही उसमें प्रवेश हो सके। इस पल्य से प्रति समय एक-एक बालाग्र निकाला जाये। इस तरह करते-करते जितने समय में वह पल्यखाली हो जाये, उस काल को बादर उद्धारपल्य कहते हैं। __ दस कोटाकोटी वादर उद्धारपल्योपम का एक बादर उद्धारसागरोपम होता है ।
इन बादर उद्धारपल्योपम और बादर उद्धारसागरोपम का इतना ही प्रयोजन है कि इनके द्वारा सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम सरलता से समझ में आ जाये
अस्मिन्निरूपिते सूक्ष्मं सुबोधमबुधरपि ।
अतो निरूपितं नान्यत्किञ्चिदस्य प्रयोजनम् ॥-द्रव्यलोकप्रकाश ११८६ १ ( अंगुल के तीन भेद हैं-आत्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुण । इनकी
व्याख्या आगे की गई है। २ पल्य को बालानों से भरने संबन्धी अनुयोगद्वार सूत्र आदि का विवेचन
परिशिष्ट में दिया गया है। ३ पल्य को ठसाठस भरने के संबन्ध में द्रव्यलोकप्रकाश सर्ग ११८२ में स्पष्ट किया है
तथा च चक्रिसैन्येन तमाक्रम्य प्रसर्पता ।
न मनाक् क्रियते नीचरेवं निबिडतागताम् ॥
वे केशान इतने घने भरे हुए हों कि यदि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाये तो वे जरा भी नीचे न हो सकें।
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