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________________ ३१२ খর दृष्टि देशविरति, प्रमत्त,अप्रमत्त तथा उपशम श्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय तथा उपशान्तमोह गुणस्थान से च्युत होकर जीव अन्तमुहूर्त के बाद ही पुनः उन गुणस्थानों को प्राप्त कर लेता है। अतः उनका जघन्य अन्तरकाल एक अन्तमुहूर्त ही होता है। क्योंकि जब कोई जीव उपशम श्रोणि पर चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचता है और वहां से गिरकर क्रमशः उतरते-उतरते पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है और उसके बाद पुनः एक अन्तमु हूर्त में ग्यारहवें.गुणस्थान तक जा पहुँचता है । क्योंकि एक भव में दो बार उपशम श्रेणि पर चढ़ने का विधान है ।' उस समय मिश्र गुणस्थान के सिवाय बाकी के गुणस्थानों में से प्रत्येक का जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त होता है। ___ मिश्र गुणस्थान को छोड़ने का कारण यह है कि श्रेणि से गिरकर जीव मिश्र गुणस्थान में नहीं जाता है । अतः जब जीव श्रीणि पर नहीं बढ़ता तब मिश्र गुणस्थान तथा सासादन के सिवाय मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त होता है। क्योंकि ये गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त के बाद पुनः प्राप्त हो सकते हैं । इस प्रकार से गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल समझना चाहिये । अब उत्कृष्ट की अपेक्षा गुणस्थानों का अन्तरकाल बतलाते हुए सर्वप्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल कहते हैं कि -गुरु मिच्छी बे छसठी-यानी मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल दो छियासठ सागर अर्थात् ६६+६६ = १३२ सागर है। वह इस प्रकार है-कोई जीव विशुद्ध परिणामों के कारण मिथ्यात्व गुणस्थान को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ सागर समाप्त करके वह जीव अन्तमुहूर्त के लिये सम्यग्मिथ्यात्व में १ एगभवे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उवसमेज्जा। -कर्मप्रकृति गा० ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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