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पचम कर्मग्रन्थ
इन गुणश्रेणियों' का यदि गुणस्थान के क्रम से विभाग किया जाये तो उनमें चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान तथा सम्यक्त्वप्राप्ति के अभिमुख मिथ्यादृष्टि भी संमिलित हो जाते हैं । विशुद्धि की वृद्धि होने पर ही चौथे, पांचवें आदि गुणस्थान होते हैं । अतः आगे-आगे के गुणस्थानों में जो उक्त गुणश्रेणियां होती हैं, उनमें अधिक-अधिक विशुद्धि होना स्वाभाविक है।
इस प्रकार गुणश्रेणियों के ग्यारह स्थानों को बतलाकर अब आगे की गाथा में गुणश्रेणी का स्वरूप तथा गुणश्रेणियों में होने वाली निर्जरा का कथन करते हैं।
गुणसेढी दलरयणाऽणुसमयमुदयादसंखगुणणाए। एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिज्जरा जोवा ।।३।।
शब्दार्थ-गुणसेठी- गुणाकारप्रदेशों की रचना, दलरयणाऊपर की स्थिति से उतरते हुए प्रदेशाग्र की रचना, अणुसमयंप्रत्येक समय की, उदयाव-उदय क्षण से, असंखगुणणाए---असख्य गुणना से, एयगुणा-ये पूर्वोक्त गुण वाले, पुण-पुनः, कमसो- .
१ (क) तत्त्वार्थसूत्र ६।४५ में गुणश्रेणियों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं ---
सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त - मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिजराः ।
इसमें मयोगि, अयोगि केवली के स्थान पर सिर्फ 'जिन' को रखा और टीकाकारों ने उसे एक ही स्थान गिना है। (ख) स्वामी काति केयानुप्रेक्षा में सयोगि और अयोगि को गिनाया
खवगो य खीणमोहो सजोइणाहो तहा अजोईया । एदे उवरि उवरिं असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०८।।
किन्तु इसको संस्कृत टीका में केवली और समुद्घात केवली को गिनाया है और 'अजोईया' को उन्होंने छोड़ दिया है।
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