________________
पचम कर्मग्रन्थ
२१
___ इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि ज्ञानावरण को उत्तर प्रकृतियो पांच हैं। उनमें से केवलज्ञानावरण प्रकृति सर्वघातिनी है और शेष चार देशघातिनी हैं । अतः जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरण रूप परिणत होता है, उसका अनन्तवां भाग सर्वघाती है अतः वह केवलज्ञानावरण को मिलता है और शेष देशघाती द्रव्य चार देशघाती प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है । दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियां नौ हैं । उनमें केवलदर्शनावरण और निद्रा आदि स्त्यानद्धि पर्यन्त पांच निद्रायें सर्वघातिनी हैं और शेष तीन प्रकृतियां देशघातिनी हैं । अतः जो द्रव्य दर्शनावरण रूप परिणत होता है उसका अनन्तवां भाग सर्वघाति होने से वह छह सर्वघातिनी प्रकृतियों में बंट जाता है और शेष द्रव्य तीन देशघातिनी प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है।
मोहनीय कर्म को जो भाग मिलता है, उसमें अनन्तवा भाग सर्वघाती है और शेष देशघाती द्रव्य है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय, अतः प्राप्त सर्वघाती द्रव्य के भी दो भाग हो जाते हैं । उसमें से एक भाग दर्शनमोहनीय को मिल जाता
घातिनी प्रकृतियों को और दर्शनावरण का शेष द्रव्य तीन भागों में विभाजित होकर उसकी तीन देशघतिनी प्रकृतियों को मिल जाता है किन्तु अन्तराय कर्म को मिलने वाला भाग पूरा का पूरा पांच भागों में विभाजित होकर उसकी पांचों देशघातिनी प्रकृतियों को मिलता है, क्योंकि अन्तराय की कोई भी प्रकृति सर्वघानिनी नहीं है । (ख) सव्वुक्कोसरसो जो मूल विभागस्सणं तिमो भागो । सव्वघाईण दिज्जइ सो इयरो देसघाईणं ।।
-पंचसंग्रह ४३४ मल प्रकृति को मिले हुए भाग का अनन्तवां भाग प्रमाण जो उत्कृष्ट रस वाला द्रव्य है, वह सर्वघातिनी प्रकृतियों को मिलता है और शेष अनुत्कृष्ट रस बाला द्रव्य देशवातिनी प्रकृतियों को दिया जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org