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पचम कर्मग्रन्थ
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लिए उसका द्रव्य सबसे अधिक होता है।' इसी से वेदनीय कर्म की स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर होने पर भी उसे सबसे अधिक भाग मिलता है।
इस प्रकार से मूल प्रकृतियों में कर्मस्कन्धों के विभाग को बतलाकर अब आगे की गाथा में उत्तर प्रकृतियों में उसका क्रम बतलाते हैं।
नियजाइलद्धदलियाणंतसो होइ सव्वधाईण । बज्झतीण विभज्जइ सेसं सेसाण पइसमयं ॥१॥
शब्दार्थ-नियजाइलद्धदलिय ---अपनी मूल प्रकृति रूप जाति द्वारा प्राप्त किये गये कर्म दलिकों का, अणंतंसो-अनन्त वां भाग, दोई-होता है, सव्वधाईणं-सर्वघाती प्रकृतियों का, बझंतीणबंधने वाला, विभज्जइ-विभाजित होता है, सेस शेष भाग, सेसाण-बाकी की प्रकृतियों में, पइसमयं-प्रत्येक समय में ।
गाथार्थ-अपनी-अपनी मूल प्रकृति द्वारा प्राप्त किये गये कर्मदलिकों का अनन्तवां भाग सर्वघाति प्रकृतियों को प्राप्त होता है और शेष बचा हुआ हिस्सा प्रतिसमय बंधने वाली प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है।
विशेषार्थ-गाथा में यह बताया गया है कि मूल कर्मप्रकृतियों को प्राप्त होने वाला पुद्गल द्रव्य ही उन-उन कर्मों की उत्तर प्रकृतियों में विभाजित होकर उन्हें प्राप्त होता है। क्योंकि उत्तर प्रकृतियों के
१ सहदुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जर गोत्ति वेयणीयस्स । - मवेहितो बहुग दवं होदित्ति णिट्टि ।।
गो० कर्मकांड १६३ २ स्थिति के अनुसार कर्मों को अल व अधिक भाग मिलने की रीति को गो०
कर्मकाड में स्पष्ट किया गया है। उसकी जानकारी परिशिष्ट में दी
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