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पंचम कर्म ग्रन्थ
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है कि बुद्धि द्वारा गुणों के भी अंश हो सकते हैं और उनके तरतम भाव का ज्ञान किया जाता है ।
इन गुणों के अंशों को रसाणु कहते हैं । ये रसाणु भी सबसे जघन्य रस वाले पुद्गल द्रव्य में सर्व जोवरानि से अनन्तगृणे होते हैं।' इसीलिए कर्मस्कन्ध को सर्व जीवराशि से अनन्तगुणे रसाणुओं से युक्त कहा है-अणुजुत्त । ये रसाणु ही जीव के भावों का निमित्त पाकर कटुक या मधुर (अशुभ या शुभ) रूप फल देते हैं । ____कर्मस्कन्धों की तीसरी विशेषता है कि -- अणंतयपएसं एक-एक कर्मस्कन्ध अनन्त प्रदेशी होता है। ऐसा नहीं है कि कर्मस्कन्धों के प्रदेशों की संख्या निश्चित हो । किन्तु प्रत्येक कर्मस्कन्ध अनन्तानन्त प्रदेश वाला है, यानी वह अनन्त परमाणु वाला होता है।
पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्ध पौद्गलिक हैं और पौद्गलिक होने से उनमें रूप, रस आदि पौद्गलिक गुण पाये जाते हैं। उनमें सर्व जीवराशि से भी अनन्तगणी फलदान शक्ति होती है तथा अनन्त प्रदेशी हैं । इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण करके योग्य कर्मस्कन्धों का स्वरूप जानना चाहिए।
इस प्रकार कर्मस्कन्धों के स्वरूप का स्पष्टीकरण करने के बाद
१ जीवम्मज्शवमाया सभामूभासंखलोगपरिमाणा। सव्व जियाणंतगुणा एक्केके होति भावाणू ।।- पचसंग्रह ४३६
अनुभाग के कारण जीव के कषायोदय रूप परिणाम दो तरह के होते हैं- शुभ और अशुभ । शुभ परिणाम असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होते हैं और अशुभ परिणाम भी उतने ही होते हैं। एक-एक परिणाम द्वारा गृहीत कर्म पुद्गलों में सर्व जीवों से अनन्तगुणे भावाणु (रसाणु) होते हैं।
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