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जघन्य वर्गणा से सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग गुणित है और ग्राह्य वर्गणा की उत्कृष्ट वर्गणा अपनी जघन्य वर्गणा से अनन्तवें भाग अधिक है ।
यहां पर वर्गणाओं के सोलह भेद' बताने और उनके कथन करने का उद्देश्य यही है कि जो चीज कर्म रूप परिणत होती है, उसके स्वरूप की रूपरेखा दृष्टि में आ जाये ।
ग्रहणयोग्य वर्गणाओं का स्वरूप और उनकी अवगाहना का प्रमाण बतलाकर अब आगे की गाथा में अग्रहण वर्गणाओं के परिमाण का कथन करते हैं ।
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शतक
इक्किक्कहिया सिद्धाणंतसा अंतरेसु अग्गहणा । सव्वत्थ जहन्नुचिया नियणतं पहिया जिट्ठा ॥७॥
शब्दार्थ - इक्किक्कहिया - एक एक परमाणु द्वारा अधिक सिद्धातंसा - सिद्धों के अनंतवें भाग, अंतरेसु - अन्तराल में, अग्गहणा - अग्रहणयोग्य वर्गणा, सव्वत्थ- -सर्व वर्गणाओं में, जहन्नुचिया - जघन्य ग्रहण वर्गणा से नियणतंसाहिया - अपने अनन्तवें भाग अधिक, जिट्ठा - उत्कृष्ट वर्गणा ।
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पंचसंग्रह में भी कर्मग्रन्थ के समान ही वर्गणाओं का निरूपण किया है । वहां १६ वर्गणाओं से आगे की वर्गणाओं को इस प्रकार बताया कम्मोवरि धुवेयर सुण्णा पत्तेयसुण्णबायरिया |
सुण्णा सुहमा सुष्णा महबंधो सगुणनामाओ । - बधन करण १६ कर्म वर्गणा हे ऊपर ध्रुववर्गणा अध्रुववर्गणा शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, शून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा और महास्कंध वर्गणा होती हैं ।
कर्म प्रकृति और गो० जीवकांड में भी कुछ सामान्य से नामभेद के साथ यही वर्गणायें कही हैं ।
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