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शतक स्थिति तक परावृत्ति होने पर । इसी प्रकार शेष संहनन, संस्थान की सम्भवित शेष संहनन और संस्थान के साथ अपनी-अपनी जघन्य स्थिति तक परावृत्ति के होने पर जानना चाहिये । इन स्थितिस्थानों में मिथ्यादृष्टि परावर्तमान मध्यम परिणाम से जघन्य अनुभाग बंध को करता। है। इसी तरह अन्य प्रकृतियों के लिए भी समझना चाहिये ।
इस प्रकार से बंधयोग्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन करने के पश्चात् अब आगे मूल और उत्तर प्रकृतियों में अनुभाग बंध के भंगों का विचार करते हैं।
चउतेयवन्नवेणिय नामणुक्कोस सेसधुवबंधी। घाईणं अजहन्नो गोए दुविहो इमो चउहा ॥७४॥ सेसंमि दुहा"
शब्दार्थ-चउतेयवन्न-तैजसचतुष्क और वर्णचतुष्क, वेयणिय-वेदनीय कर्म, नाम-नाम कमं का, अणुक्कोस-अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध, सेसधुवबंधी- बाको की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का, घाइणं-घाति प्रकृतियों का, अजहन्नो-अजघन्य अनुभाग बंध, गोए-गोत्र कर्म का, दुविहो-दो प्रकार के अनुभाग बन्ध (अनुत्कृष्ट और अजघन्य बन्ध) इमो-ये, चउहा-चार प्रकार के, (सादि, अनादि, ध्र व, अध्र व) ।
सेसंमि-बाकी के तीन प्रकार के अनुभाग बंध के, दुहादो प्रकार ।
१. गो० कर्नकाड गा० १६५-१६६ तक में उत्कृष्ट अनुभाग बंध के और गाथा
१७०-१७७ तक में जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन किया गया है। दोनों की कर्मग्रन्थ से समानता है । तुलना के लिये उक्त अंश परिशिष्ट में दिया है।
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