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________________ २५६ इनका जघन्य अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है । मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंच अपने उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से जब नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं उस समय इन पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध करते हैं तथा नारक और ईशान स्वर्ग से ऊपर के देव संक्लेश के होने पर पंचेन्द्रिय तिर्यन पर्याय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने के समय में और ईशान स्वर्ग तक के देव पंचेन्द्रिय जाति और त्रस को छोड़कर शेष तेरह प्रकृतियों को एकेन्द्रिय जीव के योग्य प्रकृतियों को बांधते समय इनका जघन्य अनुभाग बंध करते हैं । उक्त कथन का सारांश यह है कि मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंच तो सचतुष्क आदि पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने के साथ करते हैं । ईशान स्वर्ग से ऊपर के देव तथा नारक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में जन्म लेने योग्य प्रकृतियों का बंध करते हुए तथा ईशान स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय पर्याय में जन्म लेने योग्य प्रकृतियों का बंध करते हुए पंचेन्द्रिय जाति और तस को छोड़ उसके योग्य उक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बन्ध करते हैं । शतक ईशान स्वर्ग तक के देवों में पंचेन्द्रिय जाति और त्रस नामकर्म को छोड़ने का कारण यह है कि इन दोनों का बंध ईशान स्वर्ग तक के देवों को विशुद्ध दशा में ही होता है । अतः इनके उक्त दोनों प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध नहीं होता है । स्त्री वेद और नपुंसक वेद ये दोनों प्रकृतियां अप्रशस्त हैं, इनका जघन्य अनुभांग वंध विशुद्ध परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । मनुष्य द्विक, वज्रऋषभनाराच संहनन आदि छह संहनन और समचतुरस्र संस्थान आदि छह संस्थान, शुभ और अशुभ विहायोगति, सुभगत्रिक (सुभग, सुस्वर, आदेय) और दुर्भगत्रिक (दुर्भग, दुःस्वर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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