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________________ २५० शतक बन्ध न होने का कारण यह है कि जो जीव तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करता है, वही इनका भी जघन्य अनुभाग बन्ध करता है । किन्तु मनुष्य और तिर्यंचों के उतने संक्लिष्ट परिणाम हों जितने कि इन तीन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के लिये आवश्यक हैं तो वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का हो बन्ध करते हैं। इसीलिये मनुष्य और तिर्यंचों को इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध नहीं बताया है। तिरिदुगनिअं तमतमा जिणमविरय निरयविणिगथावरयं । आसुहुमायव सम्मो व सायथिरसुभजसा सिअरा ॥७२॥ शब्दार्थ तिरिदुग-तिर्यंचद्विक, निअं-नीचगोत्र का, तमतमा - तमःतमप्रभा के नारक जिणं-तीर्थंकर नामकर्म का, अविरय-अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य, निरयविण - नरक के सिवाय तीन गति वाले जीव, इगथावरयं-एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का, आसुहमा सौधर्म ईशान स्वर्ग तक के देव, आयव आतप नामकर्म का, सम्मो व-सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि, सायथिरसुभजसामातावेदनीय, स्थिर नाम, शुभ नाम और यशःकीति नामकर्म का, सिअरा--इन को प्रतिपक्षी प्रकृतियों सहित । गाथार्थ -- तिर्यंचद्विक और नोचगोत्र का जघन्य अनुभाग बंध तमःतमप्रभा नामक सातवें नरक के नारक करते हैं । तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध अविरत सम्यरदृष्टि जीव करता है। नरकगति के सिवाय शेष तीन गति वाले जीव एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं । सौधर्म और ईशान स्वर्ग तक के देव आतप नामकर्म का जघन्य अनुभागबंध करते हैं । सातावेदनीय, स्थिर, शुभ, यशःकीति और इन चारों की प्रतिपक्षी प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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