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शतक
की उपमा पर्वत की रेखा से दी जाती है। जैसे पर्वत में पड़ी दरार सैकड़ों वर्ष बीतने पर भी नहीं मिटती है, वैसे ही अनन्तानुबंधी कषाय । की वासना भी असंख्य भवों तक बनी रहती है। इस कषाय के उदय से जीव के परिणाम अत्यन्त संक्लिष्ट होते हैं और पाप प्रकृतियों का अत्यन्त तीव्र रूप चतुःस्थानिक अनुभाग बंध करता है। किन्तु शुभ प्रकृतियों में केवल मधुरतर रूप द्विस्थानिक ही रसबंध करता है, क्योंकि शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है। ___अप्रत्याख्यानावरण कषाय को पृथ्वी की रेखा की उपमा दी जाती है । अर्थात् जैसे तालाब में पानी सूख जाने पर जमीन में दरारें पड़ जाती हैं और वे दरारें समय पाकर पुर जाती हैं । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषाय होती है कि इस कषाय की वासना भी अपने समय पर शांत हो जाती है। इस कषाय का उदय होने पर अशुभ प्रकृतियों में भी त्रिस्थानिक रसबंध होता है और शुभ प्रकृतियों में भी त्रिस्थानिक रसबंध होता है । अर्थात् कटुकतम और मधुरतम अनुभाग बंध होता है।
प्रत्याख्यानावरण कषाय को बालू या धूलि की रेखा की उपमा दी जाती है। जैसे बालू में खींची गई रेखा स्थायी नहीं होती है, जल्दी ही पुर जाती है। उसी तरह प्रत्याख्यानावरण कषाय की वासना को समझना चाहिए कि वह भी अधिक समय तक नहीं रहती है। उस कषाय का उदय होने पर पाप प्रकृतियों में द्विस्थानिक अर्थात् कटुकतर तथा पुण्य प्रकृतियों से चतुःस्थानिक रसबंध होता है।
संज्वलन कषाय की उपमा जलरेखा से दी जाती है । जैसे जल में खींची गई रेखा खींचने के साथ ही तत्काल मिटती जाती है, वैसे ही संज्वलन कषाय की वासना भी अन्तमुहूर्त में ही नष्ट हो जाती है । इस कषाय का उदय होने पर पुण्य प्रकृतियों में चतुःस्थानिक रसबंध
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