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शतक
इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि जब-जब शुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट अनुभाग होता है तब-तब जघन्य स्थितिबंध होता है और जब-जब उनमें जघन्य अनुभागबंध होता है तब-तब उनमें उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । क्योंकि शुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट अनुभागबंध का कारण कषाय की मंदता और जघन्य अनुभागबंध का कारण कषाय की तीव्रता है । लेकिन स्थितिबंध में कषाय की मंदता जघन्य स्थितिबंध का कारण और कषाय की तीव्रता उत्कृष्ट स्थितिबंध का कारण है । यह तो हुई शुभ प्रकृतियों की बात । अशुभ प्रकृतियों में तो अनुभाग अधिक होने पर स्थिति भी अधिक होती है और अनुभाग कम होने पर स्थितिबंध कम होता है । क्योंकि दोनों का कारण कषाय की तीव्रता है । अतः उत्कृष्ट स्थितिबंध ही अशुभ है क्योंकि उसका कारण कषायों की तीव्रता है और शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध शुभ है, क्योंकि उसका कारण कषायों की मंदता है । इसीलिये उत्कृष्ट स्थितिबंध की तरह उत्कृष्ट अनुभाग बंध को सर्वथा अशुभ नहीं माना जा मकता है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थितिबंध और विशुद्धि से जघन्य स्थितिबंध होता है, किन्तु देवायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायु इन तीन प्रकृतियों के बारे में यह नियम लागू नहीं होता है । क्योंकि इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति शुभ मानी जाती है और उसका बंध विशुद्धि से होता है और जघन्य स्थिति अशुभ, क्योंकि उसका बंध संक्लेश से होता है । सारांश यह है कि इन प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीव्र कषाय से बंधती है और जघन्य स्थिति मंद कषाय से । किन्तु इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति मंद कषाय से और जघन्य स्थिति तीव्र कषाय से बंधती है । इसीलिये इन तीन प्रकृतियों को ग्रहण नहीं किया गया है ।
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