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शतक
कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का अजघन्य बंध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव इन चारों प्रकार का होता है, क्योंकि मोहनीय कर्म का जघन्य बंध क्षपकणि के अनिवृत्तिबादर संपराय नामक नौवें गुणस्थान के अन्त में होता है और शेष छह कर्मों का जघन्य स्थितिबंध क्षपकश्रोणि वाले दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में होता है।
अन्य गुणस्थानों व उपशमश्रोणि में भी इन सातों कर्मों का अजघन्य बंध होता है । अतः ग्यारहवें गुणस्थान में अजघन्य बंध न करके वहाँ से च्युत .होकर जब जीव सात कर्मों का अजघन्य बंध करता है तब वह बंध सादि कहा जाता है। नौवें, दसवें आदि गुणस्थानों में आने से पहले उक्त सात कर्मों का जो अजघन्य बंध होता है, वह अनादिकाल से निरंतर होते रहने के कारण अनादि कहलाता है । अभव्य के बंध का अंत नहीं होता है, अतः उसको होने वाला अजघन्य बंध ध्रुव और भव्य के बंध का अंत होने से उसको होने वाला अजघन्य बंध अध्रुव कहलाता है । इस प्रकार सात कर्मों के अजघन्य बंध में चारों भंग होते हैं ।
अजघन्य बंध के सिवाय शेष तीन बंधभेदों में सादि और अध्रुव, यह दो प्रकार होते हैं। क्योंकि मोहनीय कर्म का नौवें गुणस्थान के अंत में और शेष छह कर्मों का दसवें गुणस्थान के अंत में जघन्य स्थितिबंध होता है, उससे पूर्व नहीं, अतः वह बंध सादि है और बारहवें आदि गुणस्थानों में उसका सर्वथा अभाव हो जाता है अतः वह अध्रुव है । इस प्रकार जघन्य बंध में सादि और अध्रुव यह दो ही विकल्प होते हैं। उत्कृष्ट स्थितिबंध संक्लिष्ट परिणामी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्या दृष्टि को होता है। वह बंध कभी-कभी होता है, सर्वदा नहीं, जिससे वह सादि है तथा अन्तमुहूर्त के बाद नियम से उसका स्थान बदल जाने से अनुत्कृष्टबंध स्थान ले लेता है, अतः वह अध्रुव
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