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________________ १७६ at अधिक स्थिति वांधते हैं । यद्यपि एकेन्द्रिय से विकलेन्द्रियों में अधिक विशुद्धि होती है किन्तु वे स्वभाव से ही इन प्रकृतियों की अधिक स्थिति बांधते हैं, जिससे शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध का स्वामी बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों को ही बतलाया है । प्रकृतियों के उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन करने के पश्चात् अब स्थितिबंध में मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट आदि भेदों को बतलाते हैं । बंध, उनको सजहन्ने यरभंगा साइ अणाइ ध्रुव अधुवा । चउहा सग अजत्रो सेसतिगे आउचउसु दुहा ॥ ४६ ॥ शब्दार्थ - उक्कोसजहन्न - उत्कृष्ट इयर प्रतिपक्षी (अनुत्कृष्ट, अजघन्य बंध), भगा सादि, अणाइ - अनादि, ध्रुव - ध्रुव, अधुवा अध्रुव, चउहा चार प्रकार, सग - सात मूल प्रकृतियों के, अजहन्नो - अजघन्य बंध, सेस तिगे - बाकी के तीन, आउचउसु - चार आयु में, दुहा- दो १ (क) सत्तरसपंच तित्थाहाराणं और जघन्य शतक - प्रकार । गाथार्थ (उत्कृष्ट, जघन्य, अनुत्कृष्ट, अजघन्य, यह बंध के चार भेद हैं अथवा दूसरी प्रकार से सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये बंध के चार भेद हैं। सात कर्मों का अजघन्य बंध Jain Education International भंग, साइ सुमवादरावो || छगुमसणी जण माऊण सण्णो वा ॥ For Private & Personal Use Only ( ख ) कर्मप्रकृति बंधनकरण तथा पंचसंग्रह गा० २७० में जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाया है । - गो० कर्मकांड १५१ www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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