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________________ शतक जघन्य स्थितिबंध का स्वामित्व - उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाकर अब जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाते हैं। जघन्य स्थितिबंध के स्वामित्व के बारे में विचार करने से पूर्व दो बातों का जानना जरूरी है । एक तो जैसे उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश होना आवश्यक है, वैसे हो जघन्य स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट विशुद्धि होना चाहिये । दूसरी यह है कि जिस गुणस्थान तक यथायोग्य कषायों का सद्भाव रहने से जिन-जिन प्रकृतियों का बन्ध होता है और उसके आगे के गुणस्थान में बंधविच्छेद हो जाने से बंध की संभावना ही नहीं है, उस गुणस्थान में उन कर्म प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध होता है । अतएव जघन्य स्थितिबंध का कथन प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम तीर्थंकर नाम और आहारद्विक के जघन्य स्थितिबंध के लिये कहते हैं कि 'आहारजिणमपुव्वो' आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में होता है। क्योंकि इनके बंधकों में उक्त गुणस्थान वाले जीव ही अति विशुद्ध परिणाम वाले होते हैं और 'अनियट्ठि संजलण पुरिस लहु' अनिवृत्तिबादर नामक नौवें गुणस्थान तक संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और पुरुष वेद इन पांच प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध होता है।' आहारकद्विक आदि पुरुष वेद पर्यन्त आठ प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के स्वामी के संबंध में इतना विशेष जानना चाहिये कि आठवां और नौवां यह दोनों गुणस्थान क्षपक श्रोणि के ही लेना चाहिए, क्योंकि उपशम श्रोणि से क्षपक श्रोणि में विशेष विशुद्धि होती है। १ आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान में बधविच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के नाम द्वितीय कर्म ग्रन्थ गा० ६, १०, ११ में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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