________________
१४६
૧
पू
शेष शुभ और अशुभ वर्णादि चतुष्क की सागर, दूसरे संस्थान और संहनन की सागर, तीसरे संस्थान और संहनन की उ सागर, चौथे संस्थान और संहनन की सागर, पांचवें संस्थान और संहनन सागर और शेष प्रकृतियों की सागर जघन्य स्थिति समझना
पू
की चाहिये ।
इन ८५ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव ही कर सकते हैं । इन जघन्य स्थितियों में पल्य का असंख्यातवां भाग बढ़ा देने पर एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण. जानना चाहिये ।
शतक
गाथा के उत्तरार्ध - सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्त ठिईइ जं लद्धं का उक्त विवेचन पंचसंग्रह के अनुसार किया गया है । लेकिन कर्मप्रकृति ग्रन्थ के अनुसार इसका विवेचन निम्न प्रकार से होगा -
'उक्कोसाओ' का अर्थ उस उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति न लेकर वर्ग' की उत्कृष्ट स्थिति ग्रहण करना चाहिये। जैसे मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का समुदाय ज्ञानावरण वर्ग कहा जाता है । चक्षुदर्शनावरण आदि प्रकृतियों का समुदाय दर्शनावरण वर्ग है । साता वेदनीय आदि प्रकृतियों का वर्ग वेदनीय वर्ग है | दर्शनमोहनीय की उत्तर प्रकृतियों का समुदाय दर्शनमोहनीय वर्ग है । कषाय मोहनीय की प्रकृतियों का समुदाय कषाय मोहनीय वर्ग, नोकषाय मोहनीय
१ बंध अवस्था में वर्णादि चार लिये जाते हैं, उनके भेद नहीं, तथा उनकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम होती है । अत: चारों की जघन्य स्थिति सामान्य से 3 सागर की समझना चाहिये । वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की स्थिति पंचसंग्रह के अनुसार बताई है ।
२
जा एगिंदि जहन्ना पल्लासंखंस संजुया सा उ । तेसि जेट्ठा.......
३ सजातीय प्रकृतियों के समुदाय को वर्ग कहते हैं ।
Jain Education International
— पंचसंग्रह ५।५४
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org