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पंचम कर्मग्रन्थ
प्रकृतियों की दोनों स्थितियां सामान्य से अन्तःकोड़ाकोड़ी' सागरोपम हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थिति से जघन्य स्थिति का परिमाण संख्यात गुणहीन यानी संख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार उनका उत्कृष्ट और जघन्य अबाधाकाल भी अन्तमुहूर्त ही है और स्थिति की तरह उत्कृष्ट अबाधा से जघन्य अबाधाकाल भी संख्यात गुणहीन है। इस प्रकार इन तीन कर्मों की स्थिति (उत्कृष्ट व जघन्य) अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम और अबाधाकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण समझना चाहिए।
यहां जो तीर्थंकर और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम बतलाई, वह स्थिति अनिकाचित तीर्थंकर और आहारकद्विक की बतलाई है। निकाचित तीर्थंकर नाम और आहारकद्विक को स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर के संख्यातवें भाग से लेकर तीर्थकर नामकर्म की स्थिति तो कुछ कम दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागर है और आहारकद्विक की पल्य के असंख्यातवें भाग है। _तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम बताये जाने पर जिज्ञासु प्रश्न प्रस्तुत करता है कि जब तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम १. कुछ कम कोडाकोड़ी को अन्त:कोड़ाकोड़ी कहते हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि तीनों कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति कोड़ाकोड़ी सागरो
पम से कुछ कम है। २. अंतो कोडाकोडी तित्थय राहार तीए सखाओ।
तेतीस पलिय संखं निकाइयाणं तु उक्कोसा। -पंचसंग्रह १४२ ३. गो० कर्मकांड गाथा १५७ की भाषा टीका में (अन्तःकोड़ाकोड़ी का
प्रमाण इस प्रकार बताया है कि ' एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति की अबाधा सौ वर्ष बताई है। इस सौ वर्ष के स्थूल रूप से दस लाख अस्सी
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