________________
पंचम कर्मग्रन्थ
१२६
तिर्यंचानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकोति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थावर, एकेन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास, उद्योत, आतप, पराघात, गुरु, कठोर, रूक्ष, शीत स्पर्श दुर्गन्ध ।
(३) गोत्रकर्म-नीच गोत्र । __आहारक बंधन और आहारक संघातन को छोड़कर शेष औदारिक बंधन और संघातन आदि की स्थिति भी अपने-अपने शरीर की स्थिति जितनी होती है। अतः उनकी भी स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की समझना चाहिए। __इस प्रकार से बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से आहारकद्विक, तीर्थंकर और आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ, कुल सात प्रकृतियों को छोड़कर एक सौ तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है । ग्रन्थलाघव की दृष्टि से गाथा में एक सौ तेरह प्रकृतियों के अबाधाकाल का भी संकेत किया है कि जिस कर्म की जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उस प्रकृति का उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। जैसे कि पाँच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और असाता वेदनीय इन बीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है तो उनका उत्कृष्ट अबाधाकाल भी तीस सौ अर्थात् तीन हजार वर्ष समझना चाहिए। ____ बंधने के बाद जब तक कर्म उदय में नहीं आता है तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं। कर्मों की उपमा मादक द्रव्य से दी जाती है। मदिरा के समान आत्मा पर असर डालने वाले कर्म की जितनी अधिक स्थिति होती है, उतने ही अधिक समय तक वह कर्म बंधने के बाद बिना फल दिये ही आत्मा साथ संबद्ध रहता है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org