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शतक
अवस्थित बंध, दु-दो अवक्तव्य बंध, मोहे-मोहनीय कर्म में, दुइगवीस-बाईस, इक्कीस प्रकृतियों का बन्धस्थान, सत्तरस - सत्रह प्रकृतियों का बन्धस्थान, तेरस-तेरह प्रकृतियों का, नव - नौ का, पण - पांच का, चउ-चार का, ति -- तीन का, दु-दो. का, इक्को - एक प्रकृति का बंधस्थान, नव--नौ भूयस्कार बंध, अट्ठ-आठ अल्पतर बन्ध, दस-दस अवस्थित बंध, दुन्नि - दो अवक्तव्य बंध ।
गाथार्थ-दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के नौ, छह और चार प्रकृतियों के तीन बंधस्थान हैं और उनमें दो भूयस्कार, दो अल्पतर, तीन अवस्थित और दो अवक्तव्य बंध होते हैं। मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप दस बंधस्थान होते हैं तथा उनमें नौ भूयस्कार, आठ अल्पतर, दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंध होते हैं। विशेषार्थ-मूल कर्मप्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार आदि बन्धों की संख्या बतलाने के बाद इस गाथा से प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थान और भूयस्कार आदि बन्धों का कथन प्रारम्भ किया गया है।
सबसे पहले दर्शनावरण और मोहनीय कर्म के बंधस्थानों और उनमें भूयस्कार आदि बंधों को गिनाया है।
मूल कर्मप्रकृतियों के पाठक्रम के अनुसार सबसे पहले ज्ञानावरण कर्म के बंधस्थानों और उनमें भूयस्कार आदि बंधों को न बतलाकर दर्शनावरण और मोहनीय कर्म से इस प्रकरण को प्रारम्भ करने का कारण यह है कि भूयस्कार आदि बंध दर्शनावरण, मोहनीय और नाम
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