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________________ ७४ आकाश को क्षेत्र कहते हैं । जिन प्रकृतियों का उदय क्षेत्र में ही होता है, वे क्षेत्रविपाकिनी कही जाती हैं । यों तो सभी प्रकृतियों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा को लेकर होता है । लेकिन जिसकी मुख्यता होती है, वहां उसकी मुख्यता से उसका नामकरण किया जाता । आनुपूर्वियों को क्षेत्रविपाकी मानने का कारण यह है कि इनका उदय क्षेत्र में ही होता है । क्योंकि जब जीव परभव • के लिये गमन करता है तब विग्रहगति के अन्तराल क्षेत्र में आनुपूर्वी अपना विपाक - उदय दिखाती हैं ।" उसे उत्पत्तिस्थान के अभिमुख रखती हैं । शतक क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों को बतलाने के बाद अव जीव और भवविपाकी प्रकृतियों का कथन करते हैं । जीवविपाकी और भवविपाकी प्रकृतियां घणघाइ दुगोय जिणा तसियरतिग सुभगदुभगचउ सासं । जाइतिग जियविवागा आऊ चउरो भवविवागा ॥ २० ॥ I १ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदायों में आनुपूर्वी को क्षेत्रविपाकी माना है । लेकिन स्वरूप को लेकर मतभेद है । श्वेताम्बर संप्रदाय में एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने के लिये जब जीव जाता है तब आनुपूर्वी कर्म श्रेणि के अनुसार गमन करते हुए विश्रेणि में स्थित उत्पत्तिस्थान तक ले जाता है । केवल वक्रगति में माना है - 'पुथ्वी उदओ वक्के ।' उस जीव को उसके आनुपूर्वी का उदय -- प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा ४२ लेकिन दिगम्बर संप्रदाय में आनुपूर्वी कर्म पूर्व शरीर को छोड़ने के बाद और नया शरीर धारण करने के पहले अर्थात् विग्रहगति में जीव का आकार पूर्व शरीर के समान बनाये रखता है और उसका उदय ऋजु व वक्र दोनों गतियों में होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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