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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ___ इसका उत्तर यह है कि मिथ्यात्व का बंध और उदय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है, किन्तु वहां मिश्र मोहनीय व सम्यक्त्व मोहनीय का उदय व बंध नहीं होता है। यदि ये दोनों प्रकृतियां मिथ्यात्व गुणस्थान में रहकर मिथ्यात्व के उदय को रोकतीं और स्वयं उदय में आती तो अवश्य ही विरोधिनी कही जा सकती थीं। लेकिन इनका उदयस्थान अलग-अलग है, यानी मिश्र मोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में और सम्यक्त्व मोहनीय का उदय चौथे गुणस्थान में और मिथ्यात्व का उदय पहले गुणस्थान में होता है। अतः एक ही गुणस्थान में रहकर परस्पर में एक दूसरे के बंध अथवा उदय का विरोध नहीं करती हैं । इसीलिये मिथ्यात्व को अपरावर्तमान माना है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बारे में समझना चाहिये कि उनका बंध, उदय स्थान या बंधोदयस्थान भिन्न-भिन्न है। __ अब आगे की गाथा में परावर्तमान और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां बतलाते हैं। परावर्तमान व क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ तणुअट्ट वेय दुजुयल कसाय उज्जोयगोयदुग निद्दा । तसवीसाउ परित्ता खित्तविवागाऽणुपुग्धीओ ॥१६॥ शब्दार्थ-तणुअट्ठ-शरीरादि अष्टक की तेतीस प्रकृतियां, वेय - तीन वेद, वुजुयल-दो युगल, कसाय–सोलह कषाय, उज्जोयगोयद्ग-उद्योतहिक, गोत्रद्विक, वेदनीयद्विक, निद्दा-पांच निद्रायें, तसवीस-तसवीशक, आउ-चार आयु, परित्ता-- परावर्तमान, खित्तविवागा-क्षेत्रविपाको आणुपुग्वीओ-चार आनुपर्वी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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