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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ५५ जैसे मेघपटल के द्वारा सूर्य के पूरी तरह आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का उतना अंश अनावृत रहता है जिससे दिन-रात्रि का अंतर ज्ञात हो, वैसे ही सब जीवों के केवलज्ञान का अनन्तवां भाग अनावृत ही रहता है। क्योंकि यदि केवलज्ञानावरण उस अनंतवें भाग को भी आवृत कर ले तो जीव और अजीव में कोई अंतर ही नहीं रह सकेगा । इसका फलितार्थ यह हुआ कि केवलज्ञानावरण के रहने तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, लेकिन उसके सद्भाव में भी ज्ञान का अनंतवां भाग अनावृत रहता है । जिसको आच्छादित करने की शक्ति केवलज्ञानावरण तक में भी नहीं है। ज्ञान के अनंतवें भाग के अतिरिक्त केवलज्ञान का सर्वात्मना आवरक होने से केवल - ज्ञानावरण को सर्वघाती कहा जाता है । केवलदर्शनावरण केवलदर्शन को पूरी तरह आवृत करता है। फिर भी उसका अनन्तवां भाग अनावृत ही रहता है । केवलज्ञान और केवलदर्शन सहभावी हैं, अतः आत्मा के दर्शनगुण के अनंतवें भाग के अनावृत रहने के कारण को केवलज्ञानावरण की तरह समझ लेना चाहिए । निद्रा- पंचक भी जीव को वस्तुओं के सामान्य प्रतिभास को नहीं होने देती हैं । इन्द्रियों के अवबोध में रुकावट डालती हैं । इसीलिये उनको सर्वघातिनी प्रकृतियों में ग्रहण किया है। बारह कषायों में से अनन्तानुबन्धी कषाय जीव के सम्यक् ज्ञान प्राप्ति के मूल कारण सम्यक्त्व का ही घात करती है और बिना सम्यक्त्व के जीव को सिद्धि प्राप्त होना असंभव है । अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायें जीव के स्वरूपलाभ के हेतु चारित्र गुण का घात करती हैं । अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशचारित का और प्रत्याख्याना - वरण कषाय सर्वविरति चारित्र का घात करती है । मिथ्यात्व के रहने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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