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________________ कर्मग्रन्थभाग- १ ३१ करना, राग-द्वेष के सिवा हो नहीं सकता और राग- -द्वेष कर्म सम्बन्ध के बिना हो नहीं सकते । तथापि उन्हें कर्म रहित मानना, यह कहना कि भगवान् सब कुछ करते हैं तथापि अलिप्त हैं। ' चारित्रमोहनीय की उत्तर- प्रकृतियाँ' सोलस कसाय नव नोकसाय दुविहं चरित्तमोहणियं । अण अप्पच्चक्खाणा पञ्चक्खाणा य संजलणा ।। १७ ।। (चरित्त मोहनिणयं) चारित्र मोहनीय कर्म, (दुविहं) दो प्रकार का है - ( सोलस कसाय ) सोलह कषाय और ( नवनोकसाय) नौ नोकषाय (अण) अनन्तानुबन्धी, (अप्पच्चक्खाणा) अप्रत्याख्यानावरण, (पच्चक्खाणा) प्रत्याख्यानावरण (य) और (संजलणा) सज्वलन, इनके चार-चार भेद होने से सब कषायों की संख्या, सोलह होती है ॥ १७॥ भावार्थ — चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं। कषाय मोहनीय और नोकषाय मोहनीय । कषाय मोहनीय के सोलह भेद हैं और नोकषाय मोहनीय के नौ इस गाथा में कषाय मोहनीय के भेद कहे गये हैं, नोकषाय मोहनीय का वर्णन आगे आयेगा। कषाय - कष का अर्थ है जन्म-मरण रूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं। नोकषाय – कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है, वे नोकषाय अथवा कषायों को उभाड़ने वाले, उत्तेजित करने वाले हास्य आदि नौ को नोकषाय कहते हैं। इस विषय का एक श्लोक इस प्रकार है। कषायसहवर्तित्वात्, हास्यादिनवकस्योक्ता, कषायप्रेरणादपि । नोकषायकषायता । । क्रोध के साथ हास्य का उदय रहता है, कभी हास्य आदि क्रोध को उभारते हैं। इसी प्रकार अन्य कषायों के साथ नोकषाय का सम्बन्ध समझना चाहिये । कषायों के साहचर्य से ही नोकषायों में प्रधानता है, केवल नोकषायों में प्रधानता नहीं है। १. अनन्तानुबन्धी- जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता है उस कषाय को अनन्तानुबन्धी कहते हैं। इस कषाय के चार भेद हैं। १. अनन्तानुबन्धी क्रोध, २. अनन्तानुबन्धी मान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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