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कर्मग्रन्थभाग- १
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हैं, को भावास्रव तथा शुभ-अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वाली अथवा शुभअशुभ परिणामों से स्वयं उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों को द्रव्यास्रव कहते हैं। आस्रव तत्त्व के बयालीस भेद हैं।
६. संवर - आते हुये नये कर्मों को रोकने वाला आत्मा का परिणाम, भाव संवर और कर्म - पुद्गल की रूकावट को द्रव्य संवर कहते हैं। संवर तत्त्व के सत्तावन भेद हैं।
७. बन्ध - कर्म - पुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ दूध पानी की तरह आपस में मिलना, द्रव्यबन्ध है । द्रव्यबन्ध को उत्पन्न करने वाले अथवा द्रव्यबन्ध से उत्पन्न होने वाली आत्मा के परिणाम भावबन्ध हैं। बन्ध के चार भेद हैं।
८. मोक्ष - सम्पूर्ण कर्म- पुद्गलों का आत्म- प्रदेशों से जुदा हो जाना द्रव्यमोक्ष है। द्रव्यमोक्ष के जनक अथवा द्रव्यमोक्ष - जन्य आत्मा के विशुद्धपरिणाम भावमोक्ष है। मोक्ष के नौ भेद हैं।
९. निर्जरा -- कर्मों का एक देशीय आत्म- प्रदेशों से अलग होना द्रव्यनिर्जरा है । द्रव्यनिर्जरा के जनक अथवा द्रव्यनिर्जरा जन्य आत्मा के शुद्धपरिणाम, भावनिर्जरा है। निर्जरा के बारह भेद हैं।
'मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का स्वरूप'
मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अन्तमुहुजहा अन्ने नालियरदीवमणुणो मिच्छं जिणधम्मविवरीयं ।। १६ ।।
( जहा ) जिस प्रकार ( नालियरदीवमणुणो) नालिकेर द्वीप के मनुष्य को (अन्ने) अन्न में ( रागदोसो) राग और द्वेष (न) नहीं होता, उसी प्रकार ( मीसा ) मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से जीव को ( जिणधम्मे) जैन धर्म में राग-द्वेष नहीं होता। इस कर्म का उदय काल (अन्तमुहु) अन्तर्मुहूर्त का है। (मिच्छं) मिथ्यात्वमोहनीय कर्म (जिणधम्मविवरीयं) जैन धर्म से विपरीत है ॥ १६ ॥
भावार्थ - जिस द्वीप में खाने के लिये सिर्फ नारियल ही होते हैं, उसे नालिकेर द्वीप कहते हैं। वहाँ के मनुष्यों ने न अन्न को देखा है, न उसके विषय में कुछ सुना ही है अतएव उनको अन्न में रुचि नहीं होती और न द्वेष ही होता है। इसी प्रकार जब मिश्रमोहनीय कर्म का उदय रहता है तब जीव को जैन धर्म में प्रीति नहीं होती और अप्रीति भी नहीं होती - अर्थात् श्रीवीतराग ने जो धर्म कहा है, वही सच्चा है, इस प्रकार एकान्त श्रद्धा रूप प्रेम नहीं होता, और
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