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कर्मग्रन्थभाग-१
तरह मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशम होता है। यहाँ पर जो यह कहा गया है कि मिथ्यात्व का उदय होता है, वह प्रदेशोदय समझना चाहिये, न कि रसोदय।
औपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व का रसोदय और प्रदेशोदय-दोनों प्रकार का उदय नहीं होता। प्रदेशोदय को ही उदयाभावी क्षय कहते हैं। जिसके उदय से आत्मा पर कुछ असर नहीं होता वह प्रदेशोदय तथा जिसका उदय आत्मा पर असर जमाता है, वह रसोदय है।
४. वेदकसम्यक्त्व-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में वर्तमान जीव, जब सम्यक्त्वमोहनीय के अन्तिम पुद्गल के रस का अनुभव करता है, उस समय के उसके परिणाम को वेदकसम्यक्त्व कहते हैं। वेदकसम्यक्त्व के बाद, उसे क्षायिक सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है।
५. सास्वादनसम्यक्त्व-उपशमसम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख हुआ जीव, जब तक मिथ्यात्व को नहीं प्राप्त करता, तब तक के उसके परिणाम विशेष को सास्वादन अथवा सासादनसम्यक्त्व कहते हैं।
इसी प्रकार जिनोक्त क्रियाओं को देववंदन, गुरुवंदन, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि को करना कारक सम्यक्त्व; उनमें रुचि रखने को रोचक सम्यक्त्व और उनसे होने वाले लाभों का सभाओं में समर्थन करना दीपक सम्यक्त्व, इत्यादि सम्यक्त्व के कई भेद हैं।
अब नौ तत्त्वों का संक्षेप से स्वरूप कहते हैं
१. जीव-जो प्राणों को धारण करे, वह जीव। प्राण के दो भेद हैं;द्रव्यप्राण और भावप्राण। पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोच्छवास और आयुये दस, द्रव्य प्राण हैं। ज्ञान, दर्शन आदि स्वभाविक गुणों को भावप्राण कहते हैं। मुक्त जीवों में भाव प्राण होते हैं। संसारी जीवों में द्रव्यप्राण और भावप्राण दोनों होते हैं। जीव तत्त्व के चौदह भेद हैं।
२. अजीव-जिसमें प्राण न हो-अर्थात् जड़ हो, वह अजीव। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, आकाश आदि अजीव हैं। अजीव तत्त्व के भी चौदह भेद हैं।
३. पुण्य-जिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है, वह द्रव्यपुण्य; और जीव के शुभ परिणाम दान, दया आदि भावपुण्य हैं। पुण्य तत्त्व के बयालीस भेद हैं।
४. पाप-जिस कर्म के उदय से जीव दु:ख का अनुभव करता है, वह द्रव्यपाप और जीव का अशुभ परिणाम भाव पाप है। पाप तत्त्व के बयासी भेद हैं।
५. आस्रव-कर्मों के आने का द्वार, जो जीव के शुभ-अशुभ परिणाम
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