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प्रस्तावना
अलग होना पसंद किया। इससे यह बात साफ प्रमाणित होती है कि वे बड़े दृढ़ मन के और गुरुभक्त थे। उनका हृदय ऐसा संस्कारी था कि उसमें गुण का प्रतिबिम्ब तो शीघ्र पड़ जाता था पर दोष का नहीं; क्योंकि दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जो श्वेताम्बर तथा दिगम्बर के अनेक असाधारण विद्वान् हुये, उनकी विद्वत्ता, ग्रन्थनिर्माणपटुता और चारित्रप्रियता आदि गुणों का प्रभाव तो श्रीदेवेन्द्रसूरि के हृदय पर पड़ा, १ परन्तु उस समय जो अनेक शिथिलाचारी थे, उनका असर इन पर कुछ भी नहीं पड़ा ।
श्रीदेवेन्द्रसूरि के शुद्धक्रियापक्षपाती होने से अनेक मुमुक्षु, जो कल्याणार्थी व संविग्न - पाक्षिक थे वे आकर उनसे मिल गये थे। इस प्रकार उन्होंने ज्ञान के समान चारित्र को भी स्थिर रखने व उन्नत करने में अपनी शक्ति का उपयोग किया था।
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४. गुरु — श्रीदेवेन्द्रसूरि के गुरु थे श्रीजगच्चन्द्रसूरि जिन्होंने श्रीदेवभद्र उपाध्याय की मदद से क्रियोद्धार का कार्य आरम्भ किया था। इस कार्य में उन्होंने अपनी असाधारण त्यागवृत्ति दिखाकर औरों के लिए आदर्श उपस्थित किया था। उन्होंने आजन्म आयंबिल व्रत का नियम लेकर घी, दूध आदि के लिए जैनशास्त्र में व्यवहार किये गये विकृति शब्द को यथार्थ सिद्ध किया। इसी कठिन तपस्या के कारण बड़गच्छ का 'तपागच्छ' नाम हुआ और वे तपागच्छ के आदि सूत्रधार कहलाये। मन्त्रीश्वर वस्तुपाल ने गच्छपरिवर्तन के समय श्रीजगच्चन्द्र- सूरीश्वर की बहुत अर्चापूजा की। श्रीजगच्चन्द्रसूरि तपस्वी ही न थे किन्तु वे प्रतिभाशाली भी थे, क्योंकि गुर्वावली में यह वर्णन है कि उन्होंने चित्तौड़ की राजधानी अघाट ( अहड़ नगर) में बत्तीस दिगम्बरवादियों के साथ वाद किया था और उसमें वे हीरे के समान अभेद्य रहे थे। इस कारण चित्तौड़ नरेश की ओर से उनको 'हीरला ' की पदवी मिली थी। उनकी कठिन तपस्या, शुद्ध बुद्धि और निरवद्य चारित्र के लिए यही प्रमाण बस है कि उनके स्थापित किये हुये तपागच्छ के पाट पर आज तक ऐसे विद्वान्, क्रियातत्पर और शासन प्रभावक आचार्य बराबर होते
२.
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१. उदाहरणार्थ - श्रीगर्गऋषि, जो दसवीं शताब्दी में हुये, उनके कर्मविपाक का संक्षेप इन्होंने किया। श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुये, उनके रचित गोम्मटसार से श्रुतज्ञान के पदश्रुतादि बीस भेद पहले कर्मग्रन्थ में दाखिल किये जो श्वेताम्बरीय अन्य ग्रन्थों में अब तक देखने में नहीं आये। श्रीमलयगिरिसूरि, जो बारहवीं शताब्दी में हुये, उनके ग्रन्थ के तो वाक्य इनके बनाये टीका आदि में दृष्टिगोचर होते हैं।
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यह सब जानने के लिये देखो गुर्वावली पद्य ८८ से आगे ।
यथा श्रीहीरविजयसूरि, श्रीमद् न्यायविशारद महामहोपाध्याय यशोविजयगणि, श्रीमद् न्यायाम्भोनिधि विजयानन्दसूरि, आदि ।
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