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________________ xxxii कर्मग्रन्थभाग-१ ग्रहण करने के बाद की बातों का उल्लेख है, अन्य बातों का नहीं। इसलिये उसके आधार पर उनके जीवन के सम्बन्ध में जहाँ कहीं उल्लेख हुआ है वह अधुरा ही है। तथापि गुजरात और मालवा में उनका अधिक विहार, इस अनुमान की सूचना कर सकता है कि वे गुजरात या मालवा में से किसी देश में जन्मे होंगे। उनकी जाति और माता-पिता के सम्बन्ध में तो साधन-अभाव से किसी प्रकार के अनुमान को अवकाश ही नहीं है। ३. विद्वत्ता और चारित्रतत्परता-श्रीदेवेन्द्रसूरिजी जैनशास्त्र के निष्णात विद्वान् थे इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं, क्योंकि इस बात की गवाही उनके ग्रन्थ ही दे रहे हैं। अब तक उनका बनाया हुआ ऐसा कोई ग्रन्थ देखने में नहीं आया जिसमें कि उन्होंने स्वतन्त्र भाव से षड्दर्शन पर अपने विचार प्रकट किये हों; परन्तु गुर्वावली के वर्णन से पता चलता है कि वे षड्दर्शन के मार्मिक विद्वान थे और इसी से मन्त्रीश्वर वस्तुपाल तथा अन्य विद्वान् उनके व्याख्यान में आया करते थे। यह कोई नियम नहीं है कि जो जिस विषय का पण्डित हो वह उस पर ग्रन्थ लिखे ही, कई कारणों से ऐसा नहीं भी हो सकता। परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरि का जैनागमविषयक ज्ञान हृदयस्पर्शी था यह बात असन्दिग्ध है। उन्होंने पाँच कर्मग्रन्थ-जो नवीन कर्मग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं (और जिनमें से यह पहला है) सटीक रचे हैं। टीका इतनी विशद और सप्रमाण है कि उसे देखने के बाद प्राचीन कर्मग्रन्थ या उसकी टीकायें देखने की जिज्ञासा एक तरह से शान्त हो जाती है। उनके संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में रचे हये अनेक ग्रन्थ इस बात की स्पष्ट सूचना करते हैं कि वे संस्कृत, प्राकृत भाषा के प्रखर पण्डित थे। श्रीदेवेन्द्रसूरि केवल विद्वान् ही नहीं थे, बल्कि वे चारित्रधर्म में भी सुदृढ़ थे। इसके प्रमाण में इतना ही कहना पर्याप्त है कि उस समय क्रियाशिथिलता को देखकर श्रीजगच्चन्द्रसूरि ने बड़े पुरुषार्थ और नि:सीम त्याग से, जो क्रियोद्धार किया था उसका निर्वाह श्रीदेवेन्द्रसूरि ने ही किया। यद्यपि श्रीजगच्चन्द्रसूरि ने श्रीदेवेन्द्रसूरि तथा श्रीविजयचन्द्रसूरि दोनों को आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया था, तथापि गुरु के आरम्भ किये हुये क्रियोद्धार के दुर्धर कार्य को श्रीदेवेन्द्रसूरि ही संभाल सके। तत्कालीन शिथिलाचार्यों का प्रभाव उन पर कुछ भी नहीं पड़ा। इसके विपरीत श्री विजयचन्द्रसूरि, विद्वान् होने पर भी प्रमाद के चंगुल में फँस गये और शिथिलाचारी हुये। अपने सहचारी को शिथिल देख, समझाने पर भी उनके न समझने से अन्त में श्रीदेवेन्द्रसूरि ने अपनी क्रियारूचि के कारण उनसे १. देखो गुर्वावली पद्य १२२ से उनका जीवनवृत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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